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* अनन्भनतप्रतिक्षेपः ** अव्याप्यवृत्तिसपस्वीकार एव च 'मुखे पुच्छे च पाण्डुरः' इत्यादाववच्छेदकत्वार्थिका सप्तमी सङ्गच्छते । न चैवं नीलकपालावच्छेदेन सन्निकर्षे पीतादिग्रहापत्तिः अव्याप्यवृत्तिचाक्षुषं
-* यता घंटे नालेतरपीतरूपवत्पीतकपालप्रतियोगिकान्योन्याभाव: अबच्छेदकतासम्बन्धन नीलकणाले वर्तत इनि नीलकपालावच्छेदेनेव नीलोत्पत्तिः न तु पीतकपालाबछेदन न च भेदस्य व्याप्यवृनित्वान्नेदं समांचानमिति वाच्यम्, 'नीलपीतकापालारधा घट: पीतकपालावच्छेदेन बीरे रवदिता
: स्वरूपसम्बन्धेनेवास्वच्छंदतासम्बन्धेन तवृत्तित्वाऽव्याहतेरिनि भावनीयम् । . अत्र्याप्यवृत्तिरूपस्वीकार एव च, न तु व्यायवृत्तिरूपस्वीकारपक्षे, 'मुख पुच्छे च पाण्डुर' इत्यादी अवच्छेदक| त्वार्यिका सप्तमी सङ्गच्छते । अत्र सन्दर्भस्त्वेनं गष्टच्या बरः पुत्रा ययकोऽपि गयो ब्रजेत् । पजेत वा:अमेधेन नालं. वा
धमृत्सृजत् ।। इत्यत्र वृषविशेषगीभूनं पारिभाषिकं नीळत्यं श्रेतः खुरविषाणाभ्यां मुरंज पुच्छे च पाण्डुरः । रोहिनो यस्तु वर्णेन स नीला वृप उच्यते' ॥५६। इत्येवं इतिहासोपनिषदि प्रतिपादितम् । अत्र सतम्या अवच्छिन्नत्वार्थ एव मानिः न तु वृत्तित्वार्थे , एकस्मिन् परस्परविरोधेन व्याप्यनिश्वेतपाण्डुरादेरसम्भवात् । एतेन सविषयावृत्ति-व्याप्यवृनिवृत्तिजातरव्याप्यवृनिवृतित्वविरोधनियमोऽपि प्रत्युक्तः, अप्रामाणिकत्वाच 1 एतेन रूपस्य न्याष्यवृतित्वनियमादिति अन्नम्भवचनमपि प्रत्याख्यातम्, श्वेतादीनां दैशिकच्याप्यवृनित्वस्य नीलवृप एव बाधात शुक्लादीनां अव्याप्यवृत्तित्वं विना तत्समुदायस्कवृत्तित्वाउस - म्भवात् । न च एवं = शुक्लादीनामच्याप्यवृत्तित्वे नील-पीन-श्रेतकपालारब्धघटे नीलकपालाबछेदेन = अबच्छेदकतासम्बन्धन नीलकपाले. सन्निकर्षे = चक्षःमयांगे मति, पीतादिग्रहापत्तिः = पीतादिरूपचाक्षुषप्रसङ्गः. पीनाद: नीलपानशुक्लकपालार| धपटे सत्तादिति वाच्यम्, लौ ककविषयतासम्बन्धेन अव्याप्यवृनिचाक्षुषं = अन्याप्यनिगोचरचाक्षुषसाक्षात्कारचा ध्वच्छिक पदवच्छेदेन रहता है तदवच्छेदेन नील रूप की उत्पत्ति होती है। मतलब कि अवच्छे टकतामम्बन्ध से नीलादि के प्रति अरच्छेदकतासम्बन्ध से नीलेतररूपवान् का भेद कारण होता है। जैसे कि नीलमीतकपालारब्ध घट में नीलकपालारच्छेदेन नीलेतर पीतरूपवान कपाल का भेद रहने से घट में नीलकपालारच्छेदेन = अवदकतासम्बन्ध से नीलकपाल में नील रूप उत्पन्न होता है' <-- ।
अन्या, इति । इस तरह उपर्युक्त रीति से अनेक विद्वानों का यह कपन है कि नानारूपयाले अवयवों में आरब्ध अवयवी में अध्याप्यवृत्ति अनेक विजातीय रूप ही अवच्छंदकतासम्बन्ध से उत्पन होते है, न कि एक अनिरिक चित्ररूप वहाँ समवापसम्बन्ध से उत्पन्न होता है। यह मानना मुनासिब भी है, क्योंकि नील, पीत आदि अनेक अध्याप्यवृनि रूप का एक धर्मी में स्वीकार करनेवालों के मत में ही 'मुखे पुछे च पाण्डुरः' इत्यादि आर्पश्चन में अवोदकल अर्थवाली सप्तमी विभक्ति भी संगत होती है। यहाँ सन्दर्भ इस प्रकार का है कि , 'अनेक पुत्र की इच्छा कानी उचित है, क्योंकि अनेक पुत्र होने पर यदि उनमें से कोई भी एक पुत्र गया तीर्य में जाय, या अश्वमेध से यज्ञ को या नील वृप का उत्सर्ग करे तो पिता को सद्गति मिलती है। यहाँ जो नीलप पर है उसका पारिभापिक अर्थ यह है कि वह बृपभ, जो रूप से लोहित = रक्तरूपवाला हो, मुख और पुच्छ में यानी मुखाचच्छेदेन और पुच्छाबाछेदन पांडुर - पीत वर्णवाला है तथा पाँच की खुर और शृंग की अपेक्षा वेतवर्णवाला होता है। यहाँ मुख और पुच्छ पद के उत्तर जो सममी विभक्ति का प्रयोग हुआ है उसका अर्थ वृत्तिता नहीं, बल्कि अवच्छेदकता ही अर्थ है । मुख और पुच्छ तो नैयायिक मत में वृषभ से सर्वथा भित्र होने से चूपभवृत्ति पाण्डुर वर्ण मुख और पुच्छ में कैसे रह सकते । अतः यही मानना होगा कि उस वृपभ में मुखावच्छेदेन और पुछारच्छंदैन पाण्डुर वर्ण रहता है। इसका अर्थ यही होता है कि वृषभ के मुख और पुच्छ में अबोदकतासम्बन्ध से पाण्डुर वर्ण रहता है। इस तरह नानारूपवटक्यवारब्ध अवयवी में अवच्छेदकता सम्बन्ध से अनेक अन्याप्यति रूप का स्वीकार करना ही मुनासिर है . यह महसूस होता है।
न चर्व. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> 'एक ही धर्मी में अवच्छेदकतासम्बन्ध में अनेक रूप मानने पर तो नीलपीतवनकपालारध घट में नीलकपालाबच्छेदेन चक्षुमनिक होने पर पीनादि रूप के ग्रहण = चाक्षुप साक्षात्कार की आपनि आयेगी, क्योंकि घट में नील रूप की भांति पीतादि रूप भी रहते हैं। <- मगर यह शंका इसलिए निराकृत हो जाती है कि 'अन्यायपत्ति पदार्थ के विषयतासम्बन्ध से चार प्रत्यक्ष के प्रति चक्षुसंयोगअबदकावच्छिन्न अव्याप्यवृत्ति