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५०८ मध्यमस्वाद्वादरहस्ये खण्डः ३ . का. * व्याप्यनेछेदकत्वे मानाभावः तियोगिताकाभावस्याऽसम्भवादिति । तदसत गुणे सतायां न द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यमिति प्रतीते: 'गुणे पृथिवीत्वे न द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यमि'तिवद गुणे द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यावच्छेदकत्वाभावाऽवगाहित्वेनैवोपपती तदव्याप्यवृत्तित्वस्याऽन्यत्र दूषितत्वात् । सामानाधिकरण्येन नीलेतखदेदो यदवच्छेदेन तदवच्छेदेन नीलोत्पत्तिरित्यासाहुः ।
-* जयलता - हेतुत्वमपि असम्भवकलङ्कपशिलमित्यन्येषामाकूरम् ।
तदसत्, 'गुणे सत्तायां न द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यं' इति प्रतीते: न सामानाधिकरण्य-तदभाश्योरका निवदापरनया सामानाधिकरण्यस्यादन्याप्य वृनित्वावगाहित्बेनोपपत्ति: कार्या 'गुणे पृथिवीत्वे न द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यमि'तिप्रतीतिवद् गुणे द्रव्यत्वसामानाधिकरण्याचच्छेदकत्वाभावावगाहित्त्वेनैवोपपत्तो नदव्याप्यवृतित्वस्य = सामानाधिकरण्या व्याप्यवृत्तित्त्वरय, अन्य। दूपितत्वादिति । यथा गुण पृथिवावे न द्रव्यल्सामानाधिकरण्यं' इति प्रतीति: गुणे पृथिवीत्यनिद्रव्यत्वसामानाधिकरण्यावच्छेदकत्वाभावविषयिणी, न तु गुणे पृथिवीत्वदृनिद्रश्यत्वसामानाधिकरण्याभावावगाहिना अनुभवबाधात. त्वन्मत विशिष्टए शुद्धानतिरेकात; तदेव 'गुणं सत्तायां न द्रव्यत्वसामानाधिकरप्यं' इति प्रतीतः गुण सत्तावृनिद्रव्यत्वसामानाधिकरण्याउमेरकत्वालालगाहिनी नात्तिकस्मतामानाधिकरण्याभारविषयिणी । इत्यमेव गुणपदोत्तन्मवच्छेदकत्वार्थिका सप्तमी विभनिरपि घटामश्चति । न चैवं सति समानाबछेदकत्वात्यासत्त्या सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्ननलितराभावादरवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति कारणता सिद्धेति चक्तव्यम, सामानाधिकरण्यस्य व्याप्यनित्वेन तत्सम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकनीलेतराभावस्याऽपि व्याप्यवृत्तित्वसिद्धी नीलकपालवच्छेदकतया तवनिवासम्भवात, व्याप्यवृत्तेररच्छेदकले मानाभावात्। न च समवायस्य न्यायनिवेऽपि तत्सम्बन्धावच्छिन्नकापिसंयोगाचावस्य दृशेऽव्याप्यवृतित्वमुद्भावनीयम्, तत्र मूलापन्छिनसमवायस्यैव कपिसंयोगागावप्रतियोगितावच्छेदकल्वात, तस्य च सावन्छिन्नत्वेनाऽन्यायनिवादित्यादिकं सूक्ष्म झिकया निभाल. नीयम् ।
अवच्छेदकतासम्बन्धन नीलत्वावच्छिन्नं प्रति समानावच्छेदकल्यप्रत्यासच्या नीलतरबद्दस्य कारणत्वमित्यभिप्रायवता मतमाइ -> सामानाधिकरण्येन नीलेतरव दो यदवच्छेदन वर्तते तदवच्छेदनैव नीलोत्पतिः यथा नीलपातकालारश्च
अन्यायवृति यानी स्वाभावसमानाधिकरण है । अतएव सामानाधिकरण्पसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव भी असम्भवित है। जर कि तादृश अभाव ही नामुमकिन है तब अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रनि सामानाधिकरप्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियागिताक नीलतरादिअभाव को कैसे कारण माना जा सकता है। अत: उपर्युक्त मत नितान्न अश्रद्धेय है' <-।
ATHIधिकरणय अत्याप्टारित नहीं है तदसत, इति । मगर सामानाधिकरण्य को अन्याप्यवृनि कहना भी असङ्गत है, क्योंकि करनुस्थिति यह है कि सामानाधिकरण्य व्याप्यवृत्ति ही होता है । आशय यह है कि 'गुणं सनायां न इयत्वसामानाधिकरण्यं । यह प्रतीति सना में, जहाँ द्रव्यन्वसामानाधिकरण्य प्रसिद्ध है, द्रव्यत्वसामानाधिकरण्याभान का अवगाहन करती नहीं है, किन्तु गुण में मनावृनि दव्यन्वसामानाधिकरण्य की अवच्छंदकता के अभाव का अवगाहन करती है। यह ठीक उसी तरह संगत हो सकता है, जैसे 'गुणे पृधिरीचे न व्यवसामानाधिकरण्यं । यह प्रतीनि गुण में पृथिवीत्वनिष्ठ द्रव्यत्वसामानाधिकरपय की अवच्छंदकता के अभाव का अवगाहन करती है, न कि पृथिवीत्वनिष्ठ द्रष्यत्वसामानाधिकरण्य के अभाव का 1 इस तरह एक ही थमी में सामानाधिकरण्य एवं उसके अभाव के समावेश की प्रदर्शक प्रतीति की अन्यधा उपपत्ति हो जाने से सामानाधिकरण्य में अज्याप्यवृनित्य का अन्यत्र खण्डन किया गया है। अतः -> 'मामानाधिकरण्य अव्याप्यवृनि होने से नत्सम्बन्धावच्छिन्नातियोगिताक नीलेनगभाव का नील कपाल में होना नामुमकिन है' <- ऐसा जो कहा गया था वह अमत् = अनुचित है । हाँ, यह कहा जा सकता है कि सामानाधिकरण्प च्याप्यक्ति होने से जत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक नीलंतराभाव भी व्याप्यवृनि होगा और व्याप्यवृति का अवच्छन्दक होने में कोई प्रमाण नहीं होने से सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक नीलेतराभाव को समानावच्छंदकत्वसम्बन्ध से कारण मानना असंगत है। इस तरह कश्रितमत का निराकरण किया जा सकता है। इस विषय में अधिक जिज्ञासु जयलता पर द्रष्टिपात करें . यह विज्ञप्ति ।
गामा, इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह वक्तव्य है कि -> 'सामानाधिकरणयसम्बन्ध में नीलंतररूपान् का भेट