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६ गध्यमम्पादारतम्य गरः ३ का..
निनन्धकलागौरवम्या:विधित्वम् *
तायां लापवाद नीलेतस्त्वादिला प्रतिबन्धकत्वे तु तदवच्छिन्नाभावस्याऽखाण्डस्थ कारणतायां गौरवाऽप्रतिसन्धा(ना)त् । प्रतिबन्धकतागौरवस्य पुनरततत्तरोपस्थितिकत्वेनाऽविरोधित्वात्।।
-जरालता - प्रतिवन्यतायां कलबमानायां लाघवान = प्रतिबन्धकामावनिप्रकारणतानिरूपित-कारतावन्दकधर्म शरीरलाघवान । न व नालल्यादिना प्रतिवध्यनाय नीलरत्यांद: प्रनिबन्धकनारकल् नालंतरवादिना प्रतिबध्यतायां च नीलवादः प्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वमिति तुल्यमंब नालवादिना प्रतिवध्यताकल्प प्रतिर धकतावच्छेदक गौरमिति वाच्यम्, अवच्छेदकतया नीलादी समवायन नीलेतरत्वादिना प्रतिबन्धकत्व नीलल्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रतिबन्धकाभावापेक्षया नीलतरत्वाद्ययच्छिन्नपनियांगिनाकप्रतिबन्धकाभावकारीरस्य गुरुतरत्य:पि तदवच्छिन्नाभावस्य = नालेतरत्वाद्यवच्छिन्नाभावस्य, अखण्डस्य कारणतायां - अवच्छेदकनासम्बन्धावच्छिन्ननालादिनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणताकुक्षी गौरवाऽप्रतिसन्धानात् = गौरवानुपस्थित : अखण्डस्य नस्य तव्यनित्वेनव कारणत्वसम्झपान प्रतिबन्ने लकम्य एफने न कार्या-व्यवहितपूर्वक्षगावच्छेदन प्रतिवध्यतावच्छेदकस्वरूपकार्यनावचंद्रदकावन्छिनाधिकरणस्यत्पन्नाभादप्रतियागिन्याभावस्वरूपायां कारणतायां गुरुतरपतिबध्यतावच्छेदकनिवशे कार
तादारीरंगीरवमिति प्रतिसन्धानात मति लघी गुगं: प्रतिबध्यानारदकत्वानम्या पगमान । प्रतिबन्धकताव-छंदकस्य निरुककारणताकुक्षाचप्रवेशन तस्य गुरुत्वपि कारणताशरीर न गुरुत्वापात इति अवचंदकतय। नीलादी समवायेन नालेतरादः प्रतिबन्धकत्वसिद्धिः । न च प्रतिबन्धकतावच्छेदकस्य गुरुन्चे नदवच्छिन्नाधिकरणबृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपायां प्रतिबध्यत्तायां गौरवमिति प्रतिसन्धानात् मति लघौ गुगः प्रतिबन्धकताबन्दकत्वस्या न्याय्यत्वादिति वाच्यम, अन्वयन्यतिकाभ्यां कार्यका. रणभावनिश्चयानन्तरमेव कारणीभूना:नावप्रतियोगित्वम् पायाः प्रतिबन्धकताया निर्णयसम्भवन कार्यतावच्छेदकस्वरूपप्रतिबध्यतावच्छन्दकस्य निश्चयः प्रथममेव, प्रतिबन्धकतावच्छेदकस्य तु तदनन्तरमदनि न प्रतिबन्धकतावच्छेदकगौरवस्य पूर्वसिद्धकार्यकारणभावविघटकल्वं, अनन्तरोपस्थितिकवन दलिन्चादित्यायनाःह - प्रतिवन्धकतागीरवस्य = प्रतिबन्धकलावन्दकगौरवस्य पुनर्विापद्योतन अनन्तरोपस्थिनिकत्वेन = प्रतिबध्यतावच्छतकनिर्णयानन्तर देवापस्थिनत्वेन अविरोधित्वात् = पूर्वसिद्धकार्यकारणभावविघटकल्या भावात अबच्छेदकनया नीलादी समवायन नालतरादः प्रतिबन्धकत्व सिविध्याहनव । एतेन नीलमात्रपीनमात्रकपालिकाद्वयारब्धनालापातकपालम्वन्छेदकतया तदापतिः प्रत्युक्ता, समधायन नालंतरस्य पातरूपस्य तत्र सत्त्वादिनि तात्पर्यम् ।
से जीलेतर रूपादि में प्रतिबन्धकता मानने पर विनिगमनाचिरह से अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलता रूपादि के प्रति समवाय से नीलादि में भी प्रतिबन्धकता सिद्ध होगा। इसलिए इन मन में दो प्रतिवन्य-प्रतिवन्धकभाव की कल्पना का गौरव है। अत: अपरछंदकतया नीलादि के प्रति नीलेनर संपादि को प्रतिबन्धक नहीं माना जा मकता' <-- मगर यह भी असंगत है। इसका कारण यह है कि नीलत्वादि ही नीलसर रूपति का प्रतिवध्यताअवन्दक हागा, न कि नीरेतररूपत्वादि नीलादिरूप का प्रतिवध्यतावणेदक, क्योंकि नीलेतरवादि को नीलादि रूप या प्रतिबध्यनारच्छेदक मानने में लाघव है। यदि यहाँ यह शंका हा चि -> नीरवादि को प्रतिबध्यनारच्छंदक मानने पर नीले तत्वानि को पनिवन्धकनाअवचंद्रनक मानना होगा और नीलनग्रवादि को प्रतिवभ्यता अवच्छेदक मानन पर नीललादि को प्रतिबन्नकना अवच्छंदक मानना होगा । अतः नीलत्यादि को प्रतिबध्यतावच्छेदक मानने की ऑक्षा मालेतत्वादि को प्रतिबन्धकताअवन्दक. मानने में गौरव होगा' <- तो यह भी इसलिए निराधार हो जाती है कि प्रनिवन्धकना अपच्छदकापच्छिमानियोगिताक अभाव गमतर शरीम्बाला होने पर भी उसे अखण्डरूप से = तदन्यनियरूप मे कारण मानने में कारणताशरीर में गौरख दाप का भान नहीं होता है, किन्तु प्रनिबध्यताअनन्दक के गुगना होने पर कार्यकारणभाव में गौग्य होगा, त्र्योंकि तब प्रतिबन्धकाभाच का कार्यतावच्छेदक धर्म, जो प्रतिवध्यता अवच्छेदक | धर्म होता है, गुमनर होगा। दूसरी बान यह है कि अवजडेदकतया नीलादि के प्रति नीलेनराटि की प्रतियन्धकता अन्वययनिंग्क मे निभित होने के बाद ही प्रतिबन्भकताअनदकधर्मशरीर में गौरव की उपस्थिति होने से वह गौग्य दोपप्रनिरभ्य - प्रतिबन्धकमाव का विरोधी नहीं हो सकता 1 पूर्व उपस्थिन गौग्य ही दोपान्मक होता है । अन्यथा सापय नर्क मे अनबाद की गिद्ध हो जायंगी . यह तो अनेक बार पहले बताया गया ही है । अतः नीलादि के प्रति नांदतगदि की ही निवन्धक मानना न्याय है। अब नीलपीतपाल में अवचंदकनासम्बन्ध में नीत्यादि की उत्पत्ति का कांड प्रमग नहीं होगा, क्योंकि वहाँ समवाय मम्बन्ध में नीलेता पीत रूप रहता है।
आहे. इति । यहाँ अन्य मनीषियों का यह वक्तव्य है कि. -> 'अबच्चेदकतासम्बन्ध में नीलादि रूप के प्रति समवाय