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५८२ मध्यमस्याबादरहस्य खण्डः ३ - का.५ उद्धनकत्वस्य द्रव्यचाक्षुपकारणता
(ौता उद्भुतैकत्वस्याऽयोग्यव्यावृत्तधर्मावशेषस्यैव वा द्रव्यचाचषकारागत्वेन रूपं विनापि , घटादिचाक्षुषत्वोपपादनेन ताहशघटस्य नीरूयत्वसमर्थनं नवीनानां याccictict |
- जयलता - एतेन = विषयतासम्बन्धेन द्रव्यममवेतचाक्षपत्वावन्छिनं प्रति म्याश्रयसमवेतवसम्बन्धेन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्यप्रतिपादनेन, अरूप चाऽग्रे प्रत्यारण्यातमेव इत्यनेनान्वयः । उद्भतैकत्वस्यति । पिशाचादः चाक्षुषत्ववारणाय उद्भुतपदनिवेशः ॥ विषयनासम्बन्धन द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति स्वसमवायसम्बन्धन उद्भूतकत्वस्य कारणत्वमिति गावः । यद्यपि उद्धृतत्त्वं रूपरुपनदियव प्रसि न संध्यायां तथापि फलबलेन प्रकृतं तत्कल्पनम् । परन्त्येवं तत्कल्पनायामन्यान्याश्रयः कत उद्भूतरिरद्धा उद्भूतकत्वस्य द्रव्यचा पकारणत्वमितिः ततिद्धी चैकल्ये उद्भूतल्यसिद्धरिति । न च पिशाचादिचाक्षुषत्वा भावान्यथानुपपत्त्या तत्कल्प्यन इत्ति बान्यम्, उद्भूतरूवाभावादव नद्पपनः । न चोद्भुतस्पर्दापमानाधिकरणकत्वमेबोन्यूनैकत्वमिति बनव्यम् , तथा मति वायोरपि चा पत्त्वापत्तेः, त्वन्मतेऽणि बायाबुद्भुतस्पाभ्युपगमान । न चाशतरूपसमानाधिकरणमे कन्वमेवातंकवपदार्थ :. एतेन पिशाचाद्यनुपलब्धिरपि व्याख्याता इनि बक्तव्यम्, गवं सनि नानाजातीयरुपदपवारश्यघटादर. चाक्षपत्तापातेन नीरूपत्व-सिद्धिमनोरथ आयुष्मतां व्याहन्येन । न च प्रकृष्टमहत्त्वसमानाधिकरणमेकत्वमाद्भर्तकत्वादन ज्ञायत इनि वाच्यम्, तथा सनि गगनादेरपि चाक्षुषत्वप्रसङ्गगात् । इत्थञ्चैकवे उद्भूतत्वस्या सिद्धी उनकत्वस्य द्रव्यचाक्षुषकारणत्वाभिधानं वन्ध्यामृतस्य कुम्भकर्तृत्वाभिधानतुल्यमापद्यतत्याशड़कायां कल्पान्तरमाविर्भावन्ति अयोग्यव्यावृत्तधर्मविशेषस्य = चारयोग्यद्रव्यावृत्तिधर्मविशेषस्य चक्षयोग्यद्रव्यमाननिरूपिनवृनित्वविशिष्टद्रव्यत्वादिस्वरूपस्य पब, वान तृतमास्य. द्रव्यचाक्षुषकारणत्वेन = विषयतासम्बन्धन द्रव्यविषयकचाश्नषत्वावच्छिन्न प्रति कारणत्वन, रूपं विनाऽपि घटादियाभूपत्वोपपादनेन = निरुक्तधर्मविशएबलंगव घटादिद्वय विषयतासम्बन्धन चाक्षपादयसाधनेन, तादृशघटस्य = नान जानीयरूपवदययवारयघटस्य, स्वान्यादानन्तरमपि नीरूपत्वसमर्थनं नवीनानां प्रत्याख्यातमेव, सिद्धप्रतिबन्धकताबद्रूपाभाचे सति तादृशबटम्मवेतचापासम्भवापातात. द्रव्यचाक्षुषकारणाभूतधर्मविशेषनिष्ठा योग्यद्रव्यच्यावृनिनियामकस्योद्भुनरूपस्यैव 'नटेतारस्तु किं तेन ?' इतिन्यायेन चाक्षपकारणत्वस्वीकारस्य न्याय्यत्वाचति । एतेन घराकाशसंयोगादीनां गुरुत्वादिवदयोग्यत्वादेवन नचाक्षुषत्वपमङ्ग इति प्रत्याख्यातम्, उदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहस्योकत्वादिति दिक । प्रत्यक्ष के प्रति अव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदन विषय कारण होने की वजह रूपोत्पत्तिक्षण की पूर्व क्षण में रूपात्मक विषय ही नहीं होने से उसके चाक्षुप की आपति नहीं दी जा सकती । यह प्रत्युत्तर तो आपके और इमारे मन में तुल्य है । अत: स्वाश्रयसमवंतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव को विपयनासम्बन्ध से सच्चा प का प्रतिबन्धक मानना पडेगा । जर यह अनिता से भी प्रतिवादी को स्वीकार्य होगा तब ता नानाविजातीयरूपवाले अवयवों से आरब्ध घट को अपनी उत्पत्ति के बाद भी नीरूप मानने पर उसमें समवाय सम्बन्ध में रहनेवाले संयोगादि के अवाक्षुप की आपत्ति बज्रलेप हो जायेगी, क्योंकि उस संयोगादि में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव रहता है। प्रतिबन्धक के रहने पर कार्य का जन्म कैसे हो सकता है। इसी सवय नील, पीत आदि अनेकवर्णवाले अवयवों से आरम्ध पटादि को स्वोत्पत्ति के बाद नीरूप नहीं माना जा सकता <- यह फलित होता है' . ऐसा प्रकरणकार का अभिप्राय है।
*जीरूपशटवादी सत्यतयायिक के मत की समालोचना # पतन इति । यहाँ नव्य विद्वानों का यह वक्तव्य है कि → 'समचाय सम्बन्ध में अद्भुत एकत्व अथवा अयोग्यव्यावृत्त धर्मविशेष अर्थात् चक्षुयोग्यवृत्तित्वविशिष्ट द्रव्यत्व - यह द्रव्यचाप के प्रति कारण है । अतः विभिन्नानकरूपवाले अब आरब्ध घर में रूप उत्पन्न न होने पर भी उसका चाक्षुप साक्षात्कार हो सकता है, क्योंकि उसमें समवाय सम्बन्ध से उद्धृन एकत्व रहता है, जो पिशाचादि में रहता नहीं है । अथवा समयाय सम्बन्ध से वहां चक्षुयोग्यवृनित्वविशिष्ट व्यत्व रहन में भी वहाँ विषयतासम्बन्ध से चाक्षुप साक्षात्कार की उत्पनि हो सकती है :
मगर प्रकरणकार महोपाध्यायजी नन्य नैयायिकों को कहते है कि -> अब पटनाये होत क्या जर गौर चार गये खेत ! हमने अभी बता दिया है कि स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव द्रव्यसमवेतविषयक चाक्षुए का, जो विस्यनासम्बन्ध से स्वगोचर में उत्पन्न होना है, प्रतिबन्धक है तब तो तादृश नीरूप चट में रहनेवाले संयांग, परिमाण आदि का भी चाक्षुष साक्षात्कार न हो सकेमा, क्योंकि उन संयोग आदि में स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध में रूपाभाव रहना है 1 नानाविजानीयरूपवाले