________________
'... मध्यमम्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का. * अवच्छ दकनया रूप द्रव्यस्य वना* द्रव्य-विशिष्टनीलत्वादिलेव वा हेतुत्वगि साहः ।
न च नीलविशिष्टद्रव्यत्वादिनापि तथात्वे विनिगमनाविरहो नीलविशिष्टद्रव्यस्य पीत-1 कपालेऽपि सत्त्वात् तत्राऽप्यवच्छेदकतया नीलापत्तेः विशिष्टाधिकरणतायास्तत्राऽभावात् । nो त्ववच्छेदकतया जत्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रति एव समवायेन द्रव्यस्य हेतुत्वमित्यूचुः।
- जयताdT *सम्बन्धन बसमवारिसमजत्वसम्बन्धेन द्रव्यविशिष्टनालनादिना पत्र वा, नत नीलत्वादिना, हेत्त्वमिति । पदादी समवायन अवरबिनीलादः सनगि अन्त्यनिगिन निविदा मागच्यात नाध्यच्छदकतासम्बन्धन नत्र नीलादरुत्पादासड़गः । गद्रा घटादी समवायन नीलादेव मन्नत स्वसमयिसमवनत्ववचन ब्यविशिष्टनीलादः मन्चमिति नाम्वन्दकतासम्बन्धन नालादम्पत्तिप्पसमा आपादकविरह. आगदनाध्यांगादित आहः ।।
न च स्वसगवायसगवतत्वलम्बन्धन दयावांशष्टनालयादवट नीलविशिष्टद्रव्यत्वादिनाऽपि तथात्व = अबच्चेटकतासम्बन्धन नालादिकं प्रति देतृत्व. बिनिगमनाविरह इन न सार्थकारण भावनिश्रय इन चान्यम, उसमवामिनवेदत्वसम्बन्धन नीलविशिष्टद्रव्यस्य मगवायसम्बन्धन पीनकपापि मचान नीलपातकपालद्वयारञ्चघटस्थर तत्र = पीत्तकगले अपि अवनंदकतया नीरापत्ते; - नीलरूपीनादामलान् । अप समाधानाशपः नालगनकपालव्याघटस्थाले नीलसमवापिनि भारु घटस्य समवेतन्वन स्बसम्यागिसमवन्त्वसम्बन्धन नालरूपविशिघटनन्यस्य समयायसम्बन्धन नीलकपाल इन पानकपाले नि सयन निकापाले ग्यवादकत्तासम्बधन नाटकगोत्पादप्रमाणात नापटिनाम्य नाबन्दकनया नीलं प्रति इतनं किन्नु द्रव्यविशियनाला पस्यनि विनिर मनाविन्हः परादित न न च स्वम्गाविसमंचनासम्बन्धन ब्यचिशिष्टनालग्याउन्च्छेदकनया नालं प्रति हतुवे कथं न पातकपाल नालोत्पादः : न्यविदिशश्नालस्य नलविशिष्टद्रव्याभिन्नत्वेन नालविशिष्टद्रव्यवति द्रव्य - विशिष्टनालम्यापि न्यायप्राप्नत्यात, अन्यथा भूतल संयोगेन घटांगष्टपटरवनझायां परिशिष्ट्या सन्चापरिनि वाच्यम्, यथा बिशिरस्य दादानतिरके पि चिराष्ट्राधिकरताया अतिरिक्तत्वं तदेव दयविशिष्टनालस्य नीलविशिष्टद्रव्यानतिरेकडपि तदधिकरणतया: नानात्वान् विशिष्टाधिकरणतायाः - गिटनीलाधिकरणताया; नत्र = पीतकपाले, अभावात् स्वनिरूपितरसमवाय. सम्बन्धाम्लिन्नाधिकरणताच्छिन्न प्रतियोगिताकम्य प्रत्याशिष्टनालाभायम्य स्वरूपंण निकपाले सन्वान्न तत्रान्वच्छंदतासम्बन्धन नालम्पत्यादप्रसङ्ग इति गृदार्थः ।
अन्यायनिनानास पवादिनः अन्य विति । अस्य चरित्यनेना न्ययः । अवच्छंदकतया नालादिकं प्रति समवायन नीलादः हेतृत्वमित्येवगम्यागमे पदकार्यकारणभावकारापातेन गौरवात् अवदकत्तया जन्यरूपन्यावच्छिन्न प्रत्येब, न त न बाजेगी बांसूर्ग !
जौलविशिष्टदा अगोदकमाया रूप iPा हेतु नहीं है व नील. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> 'अवच्छेदकतासम्बन्ध में नाल रूप के प्रति स्वसमवायिसमचतत्व सम्बन्य से विशिएनीलरूप को समय सम्बन्ध में कारण माना आय या स्वममवायिसमयतत्व सम्बन्ध से नीलविशिष्टद्रव्य को समवायसम्बन्ध से कारण माना जाय ? इस विषय में माई विनिगमक नहीं होने में दोनों का कारण मानना पड़ेगा, जिससे महागीरख दोप प्रसन्न होगा <-ता यह इसलिए निगधार हो जानी है कि निरुक्त. नीलविशिष्टद्रव्य के नील का कारण मानने पर जो घट नील पीतकपारबय में उत्पन्न हुआ है वह पात कपाल में समर्वत है ठीक वैसे नील कपाल में भी ममदत होने सनीन रूए स्वसमवायसमवेतन सम्बन्ध मे घटद्रव्य में रहेगा, जिसके फलस्वरूप स्वरामवाविसमवेत्तत्व संसर्ग से नीलरूपविशिष्टघटात्मक दत्य ममशय सम्बन्ध से पीत कपाल में रहने की वजह पात कपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध सं नील रूप की उयान होने का अनिष्ट प्रमग आयगा । इसी सचव अवनकतासम्बन्ध से नील के प्रति द्रव्यविशिष्ट नीलरूप की भाँति नीलविशिष्ट द्रव्य को गमवाय सम्बन्ध में कारण नहीं माना जा सकता । अब तो विनिगमनाविरह दोप मी - दो , ग्यारह हो गया न ?! दन्यविशिष्ट नील झा की अधिकग्णना पीत कपाल में नहीं होने से स्वसमापिसमवेत्तत्वसम्बन्ध से दन्यविशिष्ट नील रूप का चहां अभार होने से अवच्छंद्रकनासम्बन्ध मे वहाँ (=पीन कपाल में) नील कप की उत्पत्ति का अवकाश नहीं है।
. ARI मागे प्रति रामपाय से यहेतुत। - माविशेष अन्य, इति । अवयवी में व्यायनि अनेक रूप की उत्पत्ति मानने वाले अन्य विद्वानों अवछंदकतामम्बन्ध में पद