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५८६ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खरः ३ - का.. * अवच्छेदकतया रूपे समान रूपतता*
वच्छेदेन पाके रक्तोत्पत्तिकाले नीलाद्यापतिः, कार्यतालवच्छेदकावरियाऽलापाद्यत्वात् । यदि तु नीलपीतश्चेतत्रितयकपालारब्धे पीतश्चेतयोः क्रमेण नाशे श्चेतनाशकाले तत्र जन्यरूपत्वावणिमापत्ति: सम्भाव्यते, तदाऽप्यवच्छेदकतया जन्यरूपत्वावच्छिनं प्रत्येव समवायेन रूपस्य हेतुता कल्या , न तु नीलाही नीलादेः, प्रयोजनाभावाद, गौरवाच्च ।।
- जयलता - = रकम पीत्वादक्षगावच्छेद- नीलाद्यापनिः दर्वारा, ननाचक्षणायछंदन पाकन एतावयवरूपनाशान मानावच्छिन्त्रप्रति. मागिताकाभारस्य अवशेदकतत्सम्बन्धन सन्चात् इति वारम्, कर्यतानरच्छेदकावच्छिन्नस्याऽनापाद्यत्वादिति । नालत्यादः मपत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभारनिएकारणतानिमपितकार्यतानवदकत्वनाऽवच्छंटकनया रूपत्वन्लिन्नाभावाधिकरण नीलत्वाद्यवच्छिन्नापादनस्यानहत्वात . जन्यरूपत्वानच्छिन्नग्य रक्तरूपस्य तत्रोलादाटक अभिचाग जोगात । लयुस्याहादरहस्य 7 प्रकृन 'कार्यसहभान तदभावादिति समाहितम ।।
यदि त्विति । अस्य चाग्रे सम्भाव्यत इत्यनेना:न्न्यः । नील-पीत-श्वेतत्रितयकपालारञ्च घंटे पाकन पीहभेनयों: झपयो: क्रमेण नाशे = नाझरधर, वेतनाशकाले = श्वनरूपनशक्षणायन्दन, तत्र बटे अंतरूपध्वंमाधिकरणकपासावच्छेदन, जन्यरूपत्वावच्छिन्नापनिः अबच्छेदकतासम्बन्धन संपल्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाबसन्चबलात सम्भाव्यत इति । अयमाक्षप. ग्रन्धारा चयचिनि सम्मवायन रूपोत्पत्त्यन्न्तरमंचावच्छेदकतासम्बन्धनास्वयंव मग उत्पद्यते । अवच्छटकनासम्बन्धन जन्यरुपल्यापन्छिन प्रत्यवच्छेदकतया ममत्वावच्छिन्नाभावस्य हेतृत्वोपगम प्रकृत श्वतवाद क्षणे मकपालावच्छेदेन रूपाभावग्य सच्चन रूपम्यावच्छेदकतासम्बन्धनात्यक्षि: दुर्वास, तस्प रूपाभावकार्यताबन्छंटकाक्रान्नत्वात् । न चैवं भवदीत व्यनिरकभितार इति भावः । समाधानग्रन्धमवताग्यन्ति -> तपाति । नित्यानिनिवारण कृनं-पि, अवच्छेदकतया जन्यरूपत्वावन्निं प्रत्येच, न तु नालवाद्यजिन्नं प्रवगि, समवायन रूपस्य हेतुता कल्या । वत्तम्पनाशक्षणाचच्छदन नत्र ममापन कपाविरहादेव गछेदकलया रूपत्वावछिन्नम्योत्पतिः, आपादकविरह आपरादरासम्मवान् । एवकारफलमाविकुर्वन्ति -> नन अबछेदकतासम्बन्धन नीलादी समवायन नीलादेः हतला कल्प्या इनि आवर्तन । तत्र नयनाहः प्रयोजनाभावादिति । अबछेदकतया जन्यरूपतापन्छिन समवायन याभावस्यैव हेतुत्वस्वीकारण प्रदर्शिता निवारणलक्षणप्रयोजनसिद्धः नालदी नालादेः हेतृत्वकल्पनभनतिप्रयोजनम् । ननु प्रयोजनविरह-पि सामग्रयाः स्वकार्याऽर्जन नलस्त्वात्तत्कल्पने कि जिन्नम ? + हि प्रयोजनक्षनिभिया सामग्री कार्य नायतत्याशङ्कायां इन्वन्तरमाचेदयन्ति --> गौरवान् = अनानाणिकरियात् । लघुना बाजुमार्गण सिध्यतीर्थस्य चक्रण साधना योगात् । ननश्च नानाजादायमापबन्दयपवार यायनि अव्याप्यवृत्ति - किया जा सकना । यहाँ यह शंका वा कि. -> 'भवटकनासम्बन्ध से जन्य रूप के प्रति अवच्छेदकतासम्बन्ध से स्याभाव को प्रतिबन्धकाभावविधया कारण मानने पर भी नील-पीतकपालद्धय से जन्य पद में जब पीतकपालअक्छेदन रक्तरूपजनक पाक = विजानीयाग्निमयोग होने पर पीनकपालाबछेदन स्पन कप उत्पन्न होता है तभी यहाँ नीलादि रूप उत्पन्न होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि रचतोत्पति के पूर्वक्षणावदन वहां रूपाभाव रहना है तो यह भी इसलिए निराकृत हो जाती है कि रूपाभाव का कार्यताव छेदक जन्यरूपत्व है, न कि नीलत्यादि । सामग्री के द्वारा स्वकार्यतावच्छेदकअवच्छिन्न का ही आपादन किया जा सकता है, न कि स्वकार्यतानवच्छेदकधर्मविशिष्ट का । नौलत्यादि तो रूपाभाव का कार्यतानवञ्चरक है। अनएन नीलवादिविशिष्ट की उत्पनि का वहाँ आपादन नहीं किया जा सकना । यदि यहाँ ऐसा उद्भावन किया जाय कि ---> 'जय घट नील, पीत और श्रेन कपाल में उत्पन्न होना है और पाक द्वारा पहले पीतरूप का और अंतरूप का नादा होता है नब भेननाशक्षणावच्छेदन यहाँ जन्प रूप की उत्पत्ति की आपत्ति होगी, क्योंकि जन्यरूपन्य रूपाभाव का कार्यतावच्छेदक है और रूपाभाव भी वहाँ रहता है। मगर वस्तुस्थिति यह है कि अवयची में समवाय मम्बन्ध से रूप की उत्पनि होने के बाद ही अवच्छेदकतासंबंध से रूप की उत्पनि होने में नर वहाँ कोई भी रूप उत्पन्न नहीं होना है' <- तो इस आपनि के निवारणार्थ यह कहा जा मकता है कि जन्यरूपत्वावच्छित्र के प्रति ही समवायसम्बन्ध सं रूप हेतु है। अंतनाशक्षण में यद्यपि अबच्छेदकतासम्बन्ध में घट में रूपाभाव विद्यमान है, मगर समवाय से रूप की अनुपस्थिति होने से उसमें अवां टकनासम्बन्ध मे जन्यरूपत्वावच्छिन की उत्पत्ति हो नहीं सकती। इस तरह अवच्छेदकतासम्बन्ध मे जन्यरूपत्वविशिष्ट के प्रति समवाय सम्बन्ध में रूपमामान्य का ही कारण मान लेन में उपर्युक्त स्थल के अनुरोध में अवच्छटकतासम्बन्ध से नील के प्रति समवाय मम्बन्ध