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०८४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ का ५
* चित्ररूपप्रकाशानिदेशः
तादृशघटस्य निःस्पर्शत्वे तु न क्षतिरिति । विस्तरस्त्वञत्यो 'मत्कृतचित्ररूपप्रकाशेऽवसेयः । जवस्तु 'तादृशो घटो न नीरूपो रूपवत्त्वप्रतीतेः सार्वजनीनाया भ्रमत्वकल्पनाऽयोगादि 'त्याहुः ।
* नयलता
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वक्तव्यम्, 'शीतली वायुः वाति इत्यादिप्रतीत्या तत्समानित्वसिद्धेः । न च तथा वायुस्पर्श एवं विषयो न तु प्रायुरिति बक्तव्यम्, `दीतलं बायुं स्पृशामीत्यनुध्यवसायानुपपत्तेः । इत्थञ्च वा सर्शनत्वेन तत्पर्थी स्वाश्रयममंतत्वेन साडांना भावविरहान विपतमा एर्शनानुपपत्तिः । निगमयति एव = द्रव्यसमवेतरूपानं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन स्पार्शनाभावस्यैव प्रतिकल्पं न तु स्पशास्वत्व सिद्धी च तादृशघटस्य नानाजातीयरूपवदवयवारख्धघटस्य निःस्पर्शत्वं तु न श्रुतिः तत्काल स्पार्शनत्वसिद्धेस्तत्र घंटे स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्यार्शनाभावविरहात स्वसंयोगसम्बन्धेन त्वचा स्पार्शनोत्पाद बाधकाभावात् । अत एव तादृशस्वहीन- घटमभवेन परिमाणादिस्यार्शनल्यानुपपत्तिरपि प्रत्याख्याता, तत्यरिमाणादः स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन स्पर्शनाभावाभावात् स्वमंयुक्तसमवायेन स्पोन्द्रियद्वारा सम्वन्धेन स्पार्शनीया बाधकाभावाद । इत्यन्वे नानाजातीयरू चदवय्वाग्न्धधदस्य नीरूपत्वाभ्युपगमापेक्षया निःस्पत्वाभ्युपरम एव श्रेयनिति तात्पर्यम् । इदञ्च प्रौढिबादन बाध्यं तेन नाऽपसिद्धान्तनिग्रहस्थानप्राप्तिरिति ध्येयम् । त्रिस्तरस्तु अत्रत्यः = तादृशघटनिःस्पर्शत्वसमर्थकः मत्कृतचित्ररूपप्रकाश' एकाकरणकाररचितवादमालान्तर्गतचित्ररूपप्रकाशाभिधानवाद अवसेयः । साम्प्रतं वादमालायां स उपलभ्यते परं न तवती:धिकविस्तर उपलभ्यते किन्तु अतोऽपि सक्षेप एवं इदं सम्भवति प्रकृतप्रकरणवन सोऽपि जयन्यादिदेवाका कृतः स्यात बृहचित्ररूपप्रकाशे चैतत्समर्धनमपि विस्तरेण प्रोक्तं स्यादिति । लच्यं तु केवलिवधम् ।
ऋजवस्त्विति । अस्य चाद्दुरित्यनेनाऽन्वयः । नादृशः = नानाजातीयरूपवदव्यवास्व्थः घटी नवोत्पादकालीनरक्षणाच्छेदन नीरूपः तत्र रूपवताधियः सार्वजनीनत्वात् । न च स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेना- बय्वरूपमंत्र तवावयविनि नासत इत्यन्यव स्थितस्याऽन्यचाऽऽरोपात स्फटिक रक्ततार्थिय इव तत्र तस्या भ्रात्वविति वान्यम्, सार्वजनीनाया रूपवत्त्वप्रतीतेः भ्रमत्वकल्पना:योगात्, स्वानुभूतावविश्वासे सर्वाऽनाश्वासप्रसङ्गात् तकंरस चानवस्थानादनुभवचाचितं तन्नरूपयमिनि आहुः |
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स्पर्शन इन्द्रिय स्वमंयुक्तप्रकृष्टमहत्वद्रव्यसमवेतत्व सम्बन्ध से स्वमंयुक्त सरे स्पर्श में नहीं रहने की वजह उसमें पियतासम्बन्ध से स्पार्शन साक्षात्कार उत्पन्न होने का अवकाश ही नहीं है तो यह भी असंगत है, क्योंकि तब समवेतविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष की कारणतावच्छेदक प्रत्यासत्ति में प्रकृष्ट महत्व के निवेश का गौरव प्राप्त होता है । अतएव आपके वक्तव्य की मान्यता नहीं दी जा सकती हमारे मत में तो त्रसरेणु के स्पर्श के स्पार्शन साक्षात्कार को कोई अवकाश ही नहीं है, क्योंकि सणेणु का स्पार्शन साक्षात्कार नहीं होने से स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से स्पार्शनाभाव प्रसरेणुसमवेत स्पर्श में रहता है, जो पियतासम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले द्रव्यसमवेतस्पार्धन का प्रतिबन्धक होता है। प्रतिबन्धक रहने पर कार्य को उत्पन्न होने का अवकाश कहाँ ? अतः विपयतासम्बन्ध में उत्पन्न होनेवाले द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वमम्बन्ध से सार्शनाभाव की ही प्रतिबन्धक मानना चाहिए, न कि स्पर्शाभाव को ऐसा सिद्ध होने पर विभिन्नरूपवाले अत्रों से आरब्ध घटादि को स्पर्शविहीन माना जा सकता है, क्योंकि उसके कारणीभूत कपालों का स्पार्शन साक्षात्कार होने से उस वट में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से स्पार्शनसाक्षात्काराभाव, जो द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन साक्षात्कार का प्रतिबन्धक होता है। नहीं रहने से स्वसंयोगसम्बन्ध से त्वन्द्रिय द्वारा जन्य - सार्शन साक्षात्कार उसमें पियतासम्बन्ध से उत्पन्न हो सकता है अर्थात उस स्पर्शविहीन घट का स्पार्शन प्रत्यक्ष हो सकता है। इस तरह नानाविजातीयरूपवाले अवयवों से आरब्ध पदादि को रूपविहीन नहीं माना जा सकना मगर स्पर्शविहीन माना जा सकता है, क्योंकि उक्त रीति से उसके स्वीकार में कोई बाधक नहीं है । इस विषय का विस्तार से निरूपण महोपाध्यायजी ने स्वरचित 'चित्ररूपप्रकाशवाद में किया है, जो वर्तमान काल में उपलब्ध होता है - यह एक सुखद सन्देश है। अधिक जिज्ञासु वहाँ अपनी निगाह डाल सकते हैं - अनुज्ञा एवं सूचना प्रकरणकार श्रीमदुजी ने दी है ।
ऐसी
BE रूपवत्ताप्रतीति से नीरूपयवाद का अत अश्रध्देय
ऋजः इति । नानाजातीयरूपवाले अवयवों से आरम्य घट की उत्पतिकाल के बाद भी नीरूप माननेवाले के १. देखिये दिव्यदर्शनस्ट प्रकाशित वादमाला ग्रन्थ पृ. १ से ४४.