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* चाक्षुषाभावनिष्टप्रतिबन्धकताविचार:
कल्पनलाघवाच्च । न च चाक्षुषाभावस्यैवाऽस्तु द्रव्यान्यसच्चाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वं, आश्रयाऽचाक्षुषत्वेनैव व्यणुकाद्यचाक्षुषत्वोपपत्तौ महत्त्वस्यापि प्रत्यासत्यघटकत्वे लाघवादिति वाच्यम्, लौकिकविषयितावच्छिन्नचाक्षुषाभावापेक्षया समवायसम्बद्धावच्छिन्नरूपाभावस्य लघुत्वात् ।
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> न चेति वाच्यमित्यनेनाऽस्याऽन्वयः | स्वाश्रयसमवेतत्वसंसर्गेण चाक्षुषाभावस्यैव न तु रूपाभावस्य अस्तु द्रव्यान्यसच्चाक्षुषं | प्रति प्रतिबन्धकत्वमिति । द्रव्यपदं चसरेणुपरं अन्यथाऽनुपदं वध्र्यमरणाङ्गकाग्रन्थाऽलखता रिति । सत्पदं च सत्ताजातिमती द्रव्यसमवेतस्य बोधकम प्रतिबध्यतावच्छेदकारीस्लामवानुरोधेन द्रव्यसमवेतानं विहान सत्योपादानमिति ध्येयम् । कि त्रुटिभिन्नसचाक्षु प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पने तु द्वष्णुकादिगोचरं चाक्षु दुर्निवारं पार्थिव परमाण्वादी रूपस्य सत्त्वेन तत्समवेतद्व्यणुकादा स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावस्य विरहात् । न च महत्वस्यापि चाक्षुष सहकारित्वान्नायं दोष इति वाच्यम्, तथा सति महत्त्वस्य पृथक्कारणत्वकल्पनागौरदात् । न च चाक्षुषकारणतावच्छेदकसम्बन्धकोटी तत्प्रवेशान्न पृथक्कारणत्वकल्पनमिति वक्तव्यम्, तथागि नन्मते आश्रयाऽचाक्षुपत्वेनैव द्व्यणुकाद्यचाक्षुषत्वोपपत्ती, आदिपदेन पार्थिवपरमाणुरूपादिग्रहणं महत्त्वस्यापि प्रत्यासत्त्यघटकत्वं लाघवात् कारणतावच्छेदकसम्बन्धारीरत्वात । नानावय चारब्ध- नीरूपघटवादिमते आश्रमचाक्षुषाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वस्वीकारात् वियतासम्बन्धेन द्रव्यसमवेतचाक्षुषं प्रति संयुक्तसमवायेनैव चक्षुषः कारणत्वं परन्तु रूपाभावनिष्ठ चाक्षुषप्रतिबन्धकतावादिमते तु द्रव्यसमवेतचाक्षुषं प्रति चक्षुषः स्वसंयुक्तमहत्त्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन चक्षुषः कारणत्वमिति स्फुटमेव तत्र गौरवम् । न च सम्बन्धगौरवस्यादपत्वमिति वाच्यम् सति लम्रा गुरो: सम्बन्धत्वकल्पनाया अन्यान्यत्वादिति शङ्काग्रन्थतात्पर्यम् ।
प्रकरणकारः तन्निराकरोति > लौकिकविपवितावच्छिन्नचाक्षुषाभावापेक्षया = स्वनिष्ठत् किविपयितानिरूपित्तविषयतासन्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकच्चाक्षुपाभावपेक्षया समवायसम्बन्धावच्छिन्नरूपाभावस्य = समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकरूपाभावस्य चाक्षुरप्रतिबन्धकल्योपगमें लाघवात् = लघुत्वात् । अयं समाधानाशयः अलौकिकविषयितानिरूपितविषयतमा य चाक्षुषं नास्ति तत्समवेतरूपादीनां चाक्षुषत्वानुरोधात् लौकिकविपयितानिरूपितवतासंसगांव च्छिन्नप्रतियोगिताकचाक्षुषा भावस्यैव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन चाक्षुषप्रतिबन्धकत्वमभ्युपगन्तव्यं नीरूपघटादिना । मया तु समायावन्निरूपाभावस्यैव तथात्वमिति प्रतिबन्धकतावच्छेदकता घटक शरीरलाघवाभावस्त्र प्रतिबन्धकत्वं युक्तिमदित्यभिप्रायः । न सम्बन्धगरिवस्याज्दीपतमित्युगीरणीयम्, सनि लघौ गुरोः सम्बन्धत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वादिति त्वयोक्तत्वात् free मया सत्राक्षु प्रत्येव
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ना. इति । यदि यहाँ नीरूपघटवादी ओर से शब्दादि के अचाप की उपपनि के लिए ऐसा कहा जाय कि -> 'विषयतासम्बन्ध से द्रव्यान्यसद्विपचक चाक्षुप के प्रति स्वाश्रयमतत्वसम्बन्ध से चापाभावप्रतिबन्धक होने से आकाशादि के गुण का, जो द्रव्यभिन्न होते हुए महाजातिमान् है, चाक्षुप प्रत्यक्ष हो सकता नहीं है, क्योंकि आकाशादि का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होने से स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध मे चाक्षुभाव आकाशादिगुण में रह जाता है। यह तो सर्वजनविदित है कि घटादि उच्य का चाप नहीं होने पर घटगत परिमाण, रूप आदि का भी नाम होता नहीं है । अतः आश्रयविपयक बाप का अभाव गुणादि के बाप में प्रतिवन्धक बनना न्यायप्राप्त है । क का नहीं होने पर भी व्यणुक का चाक्षुष होने से सद्विषयक चाप को प्रतिवस्य न कह कर इन्यान्य सद्विषयक चाय को प्रतिबध्य कहा गया है प्रनिबध्य प्रतिबन्धकभाव का स्वीकार करने का लाभ यह है कि शुक के आश्रय परमाणु का चाक्षुप नहीं होने से हो यशुक के अचाक्षुष की उपपत्ति हो जाने से महत्त्व को चापकारणतावच्छेदक प्रत्यासति का घटक मानने की आवश्यकता नहीं होने से लाघव भी है। मतलब कि चक्षु की स्वरांयुतमहत्ववद्रव्यसमवेतच सम्बन्ध से द्रव्यवाक्षुप का कारण मानने की आवश्यकता नहीं है । स्वयुक्तसमवाय सम्वन्ध से ही द्रव्यचारकारणता की उपपनि हो जाती है । अतः शब्दादि के अचाप के अनुरोध में रूपाभाव को चाक्षुपप्रतिबन्धक मानने कि आवश्यकता नहीं है। इस परिस्थिति में नानारूपवदत्रयवान्ध घटादि को नीरूप मानने पर भी तत्समवेत संयोगादि के अचाक्षुष की आपति का भी कोई अवकाश नहीं है त यह कथन भी असंगत है। इसका कारण यह है कि यदि आप लाघव से ही चाक्षुपाभाव को चाक्षुपप्रतिबन्धक मानते हैं तत्र तो रूपाभाव को ही वाक्षुपप्रतिवन्धक मानना मुनासिव है। मतलब यह है कि भावीकविपवितावाला और अलौकिकविपयितावाला इस तरह विविध है। इनमें से अलीकिकचाक्षुपत्रिपयितावाले बाप का अभाव तो आश्रितगोचर चाक्षुप का प्रतिवन्ध नहीं बन सकता है, क्योंकि अलौकिकविपयिताबाले घटचाक्षुष का अभाव होने पर भी घट में आश्रित रूपादि
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