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.७८ मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः ३ - का... * अपरभेदहेतुनाऽनहीकारः * भेदस्याऽहेतुत्वमित्युक्तत्वात, रूपाभावस्य चाक्षुषप्रतिबन्धकत्वे शब्दादीनां तत्वतत्त्वेन हेतुत्वाऽ
-* जयलता *निवेशाभ्यां, विनिगमनाविरहेण अखण्डभेदस्याऽहेतुत्वमिति । स्पर्श-रस-गन्ध-गुरुत्वादेस्तु चाक्षुपकारणीभूतभेदप्रतियागिकोटौ निवेशा निर्विवादसिद्भः । परं तत्र गगनगुणादेः प्रवेशः कार्यो न या : इत्यत्र न चिनिगमर्क किञ्चिलभ्यत, नस्योदासीनत्वात् ।। तथापि चतु नत्र तस्य प्रवेशः स्वीक्रियत, नदेव परमाग-दुयणक-पिशाचादपि तत्र प्रवेशापनेः। यदि भेदप्रतियागिकोटी तन्निवेशो नासोनियेत तत एन ना भूत शन्दादरपि तत्र निवेशः, शब्दादेतब निशे च परमाण-यणक- पशानादेशि निवेशम्य तत्र प्रत्याख्यानमशक्यत्वात, अन्यथा अर्धवासप्रसङ्गात् । न च महयाद्भतरूपादिविरहेण व तदचाक्षपोपपत्तनं तस्य प्रतियोगिकोटी निवेश इति वान्यम, लापप्रदिवाईयत परभागिपत्वन शब्दादेरप्यवाक्षपोषपनेन तस्य पनियोगिकोटी निवेशनीयत्वमित्यस्यापि सुवचत्वात् । एवञ्चोदासीनसनाशा:समावशाभ्यामविनिगमात् निरुक्तान्योन्याभावस्य न चानुपहेतुत्वं सम्भवतीति भावः। उक्तत्वादिति 'प्रतियोगिकोटाबुदासीननवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहादिति (दृश्यना ६८ नमे पृष्ठं) पूर्वमुकत्वान् । 'अस्तु तर्हि स्पर्श-शब्दादीनां तत्त्वतन्चन चाक्षुषा-हेतुत्वम् । एवनपि शब्दाद्यचाक्षुषोपपनः' इत्याशकामपाकर्तुमाह रूपाभावस्य चाक्षुषप्रतिबन्धकत्वे - चाक्षुषत्वावच्छिन्ननिष्ठप्रतिबध्यतानिरूपित प्रतिबन्धकताव स्वीक्रयमाण सति, शब्दादीनां नत्त्वतत्त्वेन हेतुत्वाऽकल्पनलाघवात् = चाक्षुषप्रनिबन्धकत्वाकल्पनेन लाघवान् । अर्य भाग: विषयतया चाक्षुषं प्रनि शब्दस्य डाब्दवन गगनपरिमाणस्य गगनपरिमाणत्वेन गगनकत्वस्य च गगनकत्वत्वेन प्रतिबन्धक्तमित्यादिकल्पनायां गौरवं नदपेक्षया मयाभावस्यैकस्यैव चाक्षषप्रतिबन्धकलकल्पनायां लावमिनि रूपाभावस्य॑य चानुपानिबन्धकत्वं न्यायप्राप्त नानारूपदवयवारन्धनीरूपघट तत्समवेनसंयोगाद्यचाक्षुपत्वं बज्रलेपापितमेवति ध्वनितार्थः ।।
__ नन विषयतासम्बन्धन द्रव्यसमवंतविषयकचाक्षु प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन चाक्षुषाभावर पत्र प्रतिबन्धकत्वं न तु || रूपरभावस्य । न च सरेणुचाक्षुष व्यभिचारः तदाश्रयस्य द्रुयगुलस्या चाक्षुषत्वेऽपि त्रुटी विप्रयतासम्बन्धन बाक्षषादयस्याफ्लरिनि बाच्यम्, प्रनिरध्यतावच्छेदककोटी त्रुटिद्रयान्यत्रय नशेनैव तत्पन्यवान् । त्रुटिभिन्नद्रज्यममयंतगोचरचानु प्रते स्वाश्रयसमवतत्वसम्बन्धेन चाक्षुषविरहस्य प्रतिबन्धकल्यमिदा न इन्दादिचापत्यप्रसङ्गः, आकाशस्या चाक्षपत्वेन स्याश्रयममयतत्वसम्बन्धन चाक्षुषाभावस्य शब्दादा मच्चान् । इत्यञ्च रूपाभावस्य प्रतिबन्धकवा स्वीकारेऽपि घटाकादासंयोगाद्यचाक्षुषत्वोपपत्नी नानारूप. बदवपवारयघटस्य स्योत्पादकालानन्तग्मनि नीरुपये दोपल्दागन्योलगि नास्तानि नीरूपवटवाघभिप्रायमरहम्नचितमपक्रमते
सकता । आकाशादिगुण विषयविधया चानुप के हेतु ही नहीं है तब उसमें विपयविधया चाक्षुप की आपत्ति भी कैसे दी जा मकती ?' <- तो यह भी अयुक्त है। इसका कारण यह है कि स्पर्श-शब्दादिअन्यतमत्वावन्छिवप्रतियोगिताक भेद को स्वरूप सम्बन्ध से द्रव्यममवेतपिपक चाक्षुप का, जो चिस्यतासम्मन्धावच्छिन्न कार्यता का आश्रय है, कारण मानने पर कारणीभूत भंद की प्रतियोगिकोटि में उदासीन के प्रवेशाऽप्रवेश का कोई चिनिगमक नहीं है । अतः पूर्वोक्त गति से अवग्यभेदविधया वह कारण नहीं हो सकता । मतलब यह है कि चाचपकारणीमतभेदप्रतियोगिनि में स्पर्श, रस, गन्ध, गुरुत्वादि धर्म का समावेश तो सर्वमान्य है। मगर शन्दादि का निवेश विवादग्रस्त है, क्योंकि वे चाक्षप के प्रति उदासीन है। फिर भी भेप्रतियोगिकोटि में शन्दादि का निवेश किया जाय तर तो परमाण, दयणुक, पिदाच आदि का भी भेटप्रतियोगिकोटि में निवेश हो जायेगा, जो नीरूपघटवादी को भी अभिमत नहीं है। अतः स्पा-रस-गन्ध-गुरुत्व-गगनगुणादि-परमाणु-यगुक -पिशाचादि अन्यतमप्रतियोगिक भेद को चाक्षुपकारण माननं की आपत्ति नीरूपपटवादी क मत में आयेगी । पदि कारणीभूतभेदप्रतियोगिकोटि में परमाणुद्वयणुकादि का निवेशा अमान्य हो तब तो शब्दादि का निवेश भी अमान्य होने से केवल स्पर्श-रसादिअन्यतमप्रतियोगिक भेद को ही चाक्षुपकारण मानना होगा, जिसके फलस्वरूप में प्रतित्रादी के मत में गन्दादि के चाक्षुप की पुन: आपसि आयेगी। इस तरह भेदप्रतियोगिकोटि में उदासीन के प्रवेशाप्रवेश का विनिनमक नहीं होने से उक्त अखण्ड भेद को चाक्षुष साक्षात्कार का कारण नहीं माना जा सकता तथा शब्दादि को तत्त्वतत्वम्प से विषयविधया कारण मानने की अपेक्षा उचित तो यही है कि रूपाभार को ही चाक्षुप साक्षात्कार का प्रतिरन्धक मानः जाय । रूपाभाव को ही चाक्षुपप्रतिबन्धक मान लेने पर शब्दादि में तत्त्वतत्त्वेन = शब्दत्व धर्म से विषयविपया चाक्षुप की प्रतिबन्धकता की कल्पना अनावश्यक होने में लायव भी है । इस नरह जब रूपाभाव में प्रतिबन्धकना सिद्ध हो गई तब नानरूपवदवयवारय घट को नीरूप मानने पर जत्समवेत संयोगादि धर्म का चाक्षुप साक्षात्कार कैस सिद्ध हो सकेगा ? अत: नानाविजातीयरूपबदक्यवारन्ध घट को नीरूप नहीं मान, जा मकता . यह फलित होता है।