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* चाक्षुषप्रयोजकप्रनिपाटनम * शब्दावल्यतमभेदस्य चाक्षुषप्रयोजकत्वात् स्यादेरित शब्दादेरपि तत्वतत्त्वेन चाक्षुषाऽहेतुत्वादेव वा नाकाशादिगुणचाक्षुषापतिरिति तास उदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहेणाऽखाण्ड
-* जयला * व्यासज्यवृत्तिगुणप्रत्यक्षे याचदाश्रयप्रत्यक्षस्य हेतुत्वकल्पनं, च्यासन्यवृनिगुणचाक्षुषे च चक्षुषः स्वगंयुक्तरूपममवापिसमवायसम्बन्धन हेतुत्वकल्पन; तदपेक्षया चाचपं प्रति रूपाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वकल्पनचांचिता । नथा च नानाविजातीयरूपबदवपवारब्धघटस्य नीरूपत्वे तत्समवेतसंयोगादिचापं नैव स्यान, तत्संयोगादा स्वाश्रयसमवयन रूपाभावस्य सत्वादिति निहितार्थः ।
ननु मया नानारूपबदन्यवारश्चनीरूपयट्यादिना विषयतासम्बन्धन द्रव्यममतचाक्षुपं प्रति चक्षुषः स्वसंग कममवायनव कारणत्वमयतेन त स्वसंरक्तरूपसमवायिसमवायेति न करणतायछंदप्रत्यानिगौरवम् । न चाकाशादिगुणगौचरनाक्षपापनिदनिवारयापदर्शितरीत्यति वाच्यम, विषयनासम्बन्धन नाश्च पनि बम्पसम्बन्धन गलां-शब्दावन्यनमन्वाच्छिन्त्रप्रतियोगिताक. || भदस्य कारणत्वाभ्युपगमेनैव तत्प्रच्यचात्, शदादी स्पर्दा- शब्दाद्यन्यनमत्वस्य भवन नरवच्छिन्नमनिया गिताकान्यान्याभावम्य विरहात. भदस्य स्वप्रनिनागिताबन्दकेन समं विरोधादित्याद्याशहां निराकरीमपक्षिति ->न चेति । दायमित्यनना स्यान्वयः । स्पर्श-शब्दाद्यन्यतमभेदस्य = स्वरूपसंसर्गण स्पर्श-शब्द-रग-गन्ध-गुरुत्व-ज्ञाना -कृनि-नगनपरिमाणाद्यन्यननत्वावचिन्न - तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नतियोगिताकामावस्य, चाक्षरप्रयोजकत्वात = विषयतासम्बन्धन चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति हतत्वान, नाकाशादिगागचापापनिरित्यत्रान्वीयते । भारितार्थमेव । गत्यता गगनादिगणनाक्षप्रमुपपादपति - स्पर्शादरित्र शब्दादेरपि तत्त्वतत्त्वेन = शब्दत्व-गगनपरिमाणत्यादिना विषयविधया चाक्षुपा तत्वादव वेति । यथा स्पर्श स-ग-ध-गुरुत्वादि स्पर्गच. रसत्व-गन्धत्व-गुरुत्वत्वादिना विषयविश्या चाशुषत्वावच्छिन्नं प्रनि अहंतुः = प्रतिबन्धकः इति न पशादी स्वसंयुक्तसमवायन चक्षुः सञ्चागि विषयतासम्बन्धन चक्षुषमपजायते तधन शब्द-गगनपरिमाणादिः विषयविधया मान्दत्त-गमनपरिमाणदिन चाक्षुषत्वावन्छिन्नं प्रति अहतः = प्रतिबन्धक इति शब्दाद स्वर्गय नरामयागन चक्षुषः मन्नेपि न विषयतासम्बन्धन चाक्षुषोत्पत्ति भवितुमर्हति। अत एव विजानीया कम्पबदययवारब्धघटस्य नारूपत्वपिन तत्संयोगाद्यचाक्षुषाचप्रसङ्गः सावकागः, रूपाभावस्य प्रतिबन्धकताकलानादिति फकिकार्थः।
करणकारः तन्निराकुरुते - उदासीनप्रवेश प्रवेशाभ्यां = चाक्षपत्वावच्छिन्नकारणीभूतभेदतियागिकुक्षा उदासननिवेशा:कि → उपर्युक्त रीति से व्यासज्यवृत्तिगुणप्रत्यक्ष के प्रति याबदाश्रयगोचर प्रत्यक्ष को कारण मान कर घटाकाशमयोगादि के चाक्षुप की आपत्ति का निवारण करने पर भी आकाशादि के अव्यासज्यवृनि शब्दादि गण के चाक्षुप की आपनि मुंह फाई खष्टी रहती है। मतलब कि स्वसयुक्तसमवाय सम्बन्ध से चक्षु इन्द्रिय शब्द में, जो क चक्षुसंयुक्त आकाश में समवेत है, रहने से उसमें विषयता सम्बन्ध में चाक्षुष प्रत्यक्ष उत्पन्न होना चाहिए । शन्न तो केवल आकाश में ही समनाय सम्बन्ध से रहने से अच्यासज्यवृत्ति गुण होने की वजह उसके प्रत्यक्ष के प्रति तो यावाश्रयप्रत्यक्ष यानी स्वावद्रियगुणाधिकरणनाबत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्ध से पर्याप्तिमत् प्रत्यक्ष विषयनासम्बन्ध से कारण ही नहीं होने से उसकी अपेक्षा नहीं रहेगी । यदि उन्नत आपत्ति का चारण करने के लिए ऐसा कहा जाय कि -> 'इव्यसमवेतविषयक चाक्षुप के प्रति चक्षु स्वसंयुक्तसनबाप सम्बन्ध से कारण नहीं है किन्तु स्वसंपुक्त-रूपसमवायिव्य समवाय सम्बन्ध में कारण है । आका रूपसमवायिद्रव्य नहीं होने चक्षु स्वसंयुक्त-रूपसमचायिद्रव्यममवाय सम्बन्ध से शब्द में न रहने की बजह शब्दादि के चाक्षुप साक्षात्कार की भापति को अवकाश | नहीं है' <- तो यद्यपि शन्दादि के अचाक्षुप की नो उपपनि हो जायेगी मगर कारगतावच्छेदक प्रत्यासनि के मध्य में रूपचन्न * रूपसमवायित्व का प्रवेश होने की वजह गौरव दोष प्रसन्न होगा । स्वमंयुक्तममवाय की अपेक्षा ग्वसंयुक्तरूप. समयायिव्यानुयोगिकसमवायसम्बन्ध का कारणनावटक मानने में गांव ना स्पष्ट ही है। यदि यहाँ यह शंका हो कि -> "विषयतासम्बन्ध से द्रव्यममवेतचाक्षप के प्रति चक्षु ना स्वसंयुक्तसमवाय सम्बन्ध में ही कारण है मगर स्वरूपसम्बन्ध से स्पर्शान्दादिअन्यतमप्रतियोगिक भेद भी विषयतासम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले द्रत्र्यसमराक्षप का इंतु है। आकाशगुणा सच्चाद नो स्पर्शशब्दादिअन्यतम होने से उममें स्पर्शशब्दादिअन्यतमप्रतियोगिकभेद स्वरूपसम्बन्ध में नहीं रह सकता, क्योंकि मंट स्वप्रतियोगितावच्छेदक का असमानाधिकरण होता है । भदप्रतियागितावच्छेदक स्पर्शशन्दादिअन्यत्तमत्व के आश्रय शब्दादि में उक्त भेद नहीं होने से उसके चाक्षुप का आपाटन असंगत है । अधचा हम यह भी कह सकते हैं कि जैसे सम्पादि स्पर्शव-रूपत्वादिरूप से विषयविधया चाक्षुप के हेतु नहीं है ठीक वैसे ही शन्द, आकाशपग्मिाण आदि भी दाब्दन्च- आकाश. परिमाणत्वादिरूप से विपयविधया चाक्षुप के हेतु नहीं है। इसलिए आकाशादिगुण के चाक्षुप का आपादन नहीं किया जा