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* कपलनायनुसारेण यथाश्रुतपापपादनम् * | च नील-पीतान्यतरादीतररूपं प्रतिबन्धकमिति न तियारब्धचिगवति दितयारब्धविधापत्तिः।। गौरवं तु प्रामाणिकत्वादिष्टमि पारी । अत्र लीलतर-नीलतमोभयत्वादिना तनुभयजन्यचित्रं प्रत्यपि हेतुता वाच्या, तत्प्रति च नीलतर-नीलतमायतरेतररूपत्वेन प्रतिबन्धकता, तेन
-* जयलाता - नन्वेवं सति नाल-गीत-रक्तत्रितयजन्यतावच्छेदकचित्रवत्र्यायजानिविरोपावनिचित्ररूपचति घटादा नीलपीना भयादिजन्यचित्ररूपमुतायत, तत्र स्वसमवायियमवनत्वसम्बन्धन नालपानोभयादः सचान । न च संपत्तावन्छिन्नम्य व्यायवृत्तित्वनकचित्रम् पयत्यारचित्ररूपान्पन्ययागादिति रक्तव्यम, तथापि जगविश्वसामग्रामन्च प्रथम भयजन्यं चित्रमतपद्येन यदुन जिपजन्य मानमादित्याशकांपाभाह-नीलपीनोभयाद्यारधचित्र च स्वस मनायिसमवतत्वसम्बन्धन नीर-पीतान्यतरादीनारूप प्रतिबन्धकमिति स्वीकारात नाल-गीत-रककालत्रितयजन्यचंट स्यसमवापिसभवनत्वसम्बन्धन नीलपातान्यतरतरस्य रकरूपस्य द्वितयजचित्रप्रतिबन्धकस्य सत्त्वात न त्रितयारधचित्रवति = समवायन नील-पान - रत्नादि-निकोत्पन्नचित्ररूपरिशिष्टे द्वितपारधवित्रापतिः = समवायसम्बन्धन नीलपातीमयादिमावजन्यताब लेटकीभूतचिवतन्या यजातिविशिष्ट-चित्ररूपांतपाद. | प्रसङगः । न हि प्रतिबन्धकम्पन्न कार्यमुत्पत्तुमर्हति । एवं नील-पीत-रकादित्रितयाग्भत्रि व नील-पीत रकान्यतभेतररूपस्य प्रतिबन्धकन्वान्न रूपचतुकास्थविविशिष्टे वयगिनि समयान त्रिनयमावचित्ररूपरोतासग इत्यादिकं स्वन उन्नयम् ।
कश्चित्तु आधुनिक; --> ''अत्र 'नीलगातादातरम्प इनि राठ एव सगुचितः । मूलादान सम्माज्यते च लखनत्वरया कर्तनाई- 'अन्यनर' शब्दस्य कर्तनं विस्मृतं' - इत्याह, तदज्ञानविनमितम, एवं मांत नीलगातारञ्चपि द्विनयजं चित्रं ने स्यात, नालपीनादातरम्य नालम्य पातम्य च तत्र मन्नान । न हि ना पीनं वा रूपं नीलपीतोभयात्मकं भवति । न च नयोपदेशे प्रकुने 'नीलपीतीभयादिमात्रारब्धे च नीलपानादीनामावन प्रतिबन्धकल्यात इतिपाठदर्शनन विीषिका कार्या. प्रकृतप्रकरणपाइपलादेव 'अन्यनर' पदस्य तन्मध्य प्राईवद. स्याद्वादकल्पलताया चित्ररूपप्रकाशं च 'नीलपातान्यनग. दीनररूपत्वन' इत्येवं पाठदर्शनात्मलं विवादेन ।
न च चिधत्वच्यायनानाजाति - नदाछिन्न-निरूपिनानाधिकाम्णना-प्रनिबन्धकतादिकल्पनागीरवाना गक्षः मर्माचीन इति वक्तन्यम, तस्य फलमुखत्वनाउदोषत्वादित्या शयनाह -> गौरवं = नानाजान्यादिकल्पनागौरवं, तु प्रामाणिकत्वात् - कार्यकारणभावादिनिश्चयानन्तरमुपस्थितत्वेन फलमबत्नात, इमित्यन्ये बदन्तीति झापः ।
नन्वेवं सति नीलतर-नीलतमाभयारब्धेन्वयविनि चित्रं न स्यात, स्वसमचायिसमवेतत्वसम्बन्धन नत्र नीलातिग्निरूपम्य विरहादित्याशढ़कायामनन्मत्तीपष्टम्भार्थं प्रकरणकदाह अत्र = निरुक्तपक्ष, नीलनर-नीलनमोभयत्वादिना भयजन्यचित्रं - नीलतर-नीलतमाभयजन्यनारच्छेदकाचित्रत्वज्याप्यजातिधिदीपावच्छिन्नं, प्रत्यपि हेतुता राज्या = दीकाया । अन: स्वसमवायि. समवंतलसम्बन्धन नीलनर-नीलतमोभयवनि न चित्रनत्यनिग्रगङ्गः । तथापि नील-पातीभयारयचित्ररूपवति नौलतर-नीलतमी| भयारब्यचित्रोत्पनिप्रसड़गस्य दर्निवारत्वमित्याशडकायामास - तत = गमवागन नीलतर नीलतमाभयारन्धा नीलनर-नीलनमान्यतरेतररूपत्वेन प्रतिवन्धकता स्वीकार्या, तन - निरुतगतिबध्य-प्रतिचन्धकमावस्वाकांग्ण, न नीलपीनोभया
| पीत रूप की नीलपीनाभयलेन कारणता है। एवं नील-पीत-रक्तकपालबिनय मे आग्ध घट में वृत्ति चित्रवव्याप्यजाति (चित्रत्व| विशेय) से अवच्छिन्न = विशिष्ट के प्रति नील-पीन रक्त की नील-पीत-रक्तत्रितयत्वेन कारणता है । यहाँ यह वांका हो कि
-> 'नील-पीत-रक्तकपालत्रिक मे जन्य घर में नीलपीनाभयजन्य चित्र रूप भी क्यों उत्पन्न नहीं होता है ? - तो | इसका समाधान यह है कि नीलपीतोभयमात्रजन्य चित्ररूपविशेप के प्रति नील - पीतान्यतरादि से भिन्न स्कादि रूप प्रतिबन्धक है। यद्यपि इस मत में गौग्न प्रतीत होता है, क्योंकि चित्रत्क्याप्य अनेक चित्रविशंप की कल्पना करनी पड़ती है नधापि यह गौरव प्रामाणिक होने से पात्मक नहीं है । प्रामाणिकना इसलिए है कि नीलपीतोभयमात्रजन्य चित्र रूप और नीलपौत-रक्तत्रितयजन्य चित्र रूप में बजात्य अनुभरसिद्ध है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि नीलतर-नीलतमोभयकपालमात्रजन्य घट में समवेत चित्ररूपवियोप के प्रति नीलतर , नीलतमोभयत्वेन कारणता माननी होगी, जिससे नीलतर-नीलतमाभयकरारजन्य पद में समवेत चित्ररूप की उत्पत्ति निगराध हो मक। यहाँ इस शंका का कि -> 'नील-पीतकपालजन्य घट में नीलतर. नीलतमजन्य चित्र रूप की भी उत्पनि क्यों होनी नहीं हैं? - समाधान यह है कि नीलसर - नीलतमाभपमात्रजन्य