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.६६ मध्यमस्याद्वादरहस्य स्वण्डः ३ . का.५ *मतबपगौरवकथनम् - विजातीयतेजःसंयोगत्वेत हेतुतेत्यासाहुः ।
चित्रत्वावच्छिन्नं प्रत्येव स्वविजातीयत्व-स्वसंवलितत्वोभयसम्बन्धेन रूयाऽसमवायिकारणविशिष्टरूपाऽसमवायिकारणत्वेन हेतुता । रूपासमवायिकारणत्वा जनकताविशेषसम्बन्धेन रूपवत्वमेवेत्यरोके । मतदयमिदं स्फुरगौरवतास्तम् । . .. .
---* आयलता - वजात्यापकिन्न हि विजातीयतेजःमयोगत्वेन हेतुतेनि । समवायेन रूपमाघजातिरिक्तचित्रं प्रति समवायन विजातीयतेजःसंयोगस्य कारणत्यमित्यर्थः । आहरित्यनेना स्परसः प्रदर्शितः । तद्रीजच चक्ष्यते ।।
प्रकृने केषामभिप्रायमाह - चित्रत्वावच्छिनं प्रत्येति । एवकारेण विजातीयचित्रलाबन्चित्रं प्रतीत्यस्य व्यवच्छेदः कृनः । स्वविजातीयत्व-स्वसंवलितत्वोभयसम्बन्धन निम्नस्वरूपण रूपविशिष्टक एस्य रूपाऽसमवायिकारणविशिष्टरूपासमवायिकारणत्वेन इंतता । असमवायिकारणत्वस्थ समवायिकारणनि सति समवेतकार्यजनिनियामकत्वं सति समवेतकार्यस्थितिनिधामकत्वरूपतया नदघटितकारणतावच्छेदकरवीकारे महागौरत्रमित्याशङ्गकामपाकर्तुमाह रूपाऽसमवापिकारणत्वञ्च जनकताविशेषसम्बन्धन - स्वासमनायिकारणतासम्बन्धन रूपवत्त्वमेव - अवयविरूपवत्त्वमेव ।
तपयित्तमपक्रमते --> मनद्वयमिदं सकटगीरवग्रस्तमिति । मतदयेऽपि निरुतोभयसम्बन्धन रूपविशिष्टरूपस्य बगमवायिसमवतत्वसम्बन्धन तत्कारणत्वस्य तुल्यल्वपि प्रथममते रूपविशिष्टरूपत्वस्य कारणनावच्छेदकधर्मत्वं द्वितीयकल्पे च होनेवाले विजातीय चित्ररूप का कारण है, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से उस घट में रहता है। अतः उस घट में रूपमात्रजन्य चित्र रूप की समवाय सम्बन्ध से उत्पनि निरागाध है । दूसरे विजातीय चित्र रूप का, जो केवल पाकज है, कारण विनातीयतेजःसंयोग है। विजातीय भनिसंयोग अवयवी में रहने पर वहाँ विजातीय (पाकज) चित्र रूप की ममवाय सम्बन्ध से उत्पनि होती है । इस नरह चित्ररूपस्थल में द्विविध कार्य-कारणभाव का स्वीकार करने से ही व्यभिचार आदि का अवकाश म होने से अन्यविध कार्य-कारणभाव का स्वीकार असंगत है।
समतायिकारणतागर्मित शिवम्यसामान्य कारणता 28 चित्रन्या इति । इस समन्ध में कुछ विद्वानों का पह वक्तव्य है कि -> 'चित्ररूपसामान्य के प्रति ही स्वविजातीयत्व और स्वसंचलितत्व दोनों सम्बन्ध से रूपाऽसमवापिकारणविशिधरूपाऽसमवायिकारणत्वस्वरूप धर्म से ही रूपरिशिष्टरूप में कारणता है । रूपाऽसमायिकारण में रहनेवाली रूपासमापिकारणता जनकनाविशेषसम्बन्ध रूपवत्वस्वरूप ही है, न कि समायिकारणसमवेतन्चे सनि समवनकार्योन्पत्तिनियामकत्वं सति समवेतकायस्थितिनियामकत्वस्वरूप । अवयवरूप अवयविरूप का जनक होने मे जनकताविरोपमम्बन्ध से अवयविरूप अवयवरूप में रहगा । अवयवरूप में जनकनविशेपमम्बन्ध = असमायि. कारणतासंबंध में रहनेवाला रूपक्व ही अवयवरूपनिष्ट रूपाऽसमवापिकापणना है । अनः असमवायिकारणता सम्बन्ध से अवयिरूपबत्त्वविशिष्ट = पाममवायिकारण जर म्वचिजातीयत्व . स्वसंवलितत्त्वांभय सम्बन्ध में रूपाइसमवापिकारण से, जो स्वयं भी जनकतासंसर्ग से रूपवविशिष्ट है, विशिष्ट बनना है नब अवयवी में वह स्वसमवापिसमवेतत्वमम्बन्ध से रह कर वहाँ ममत्राय सम्बन्ध में चित्ररूप को उत्पन्न करता है' <-। उपर्युन मत में और इस मन में चित्र रूप का कारण स्वविजातीयत्व. मगंवलितत्व उभयसम्बन्ध में रूपविशिष्टरूप ही है। मगर प्रथम मत में कारणतावदक धर्म कपविशिष्टरूपत्व है. जब कि दूसरे मन में काग्णतावदक धर्म प्रदर्शित रूपाइसमचाविकारणत्वविशिष्टरूपाउसमत्रायिकारणल है । दूसरी विशेषता यह है कि प्रथम मन में चित्र का का द्विविध-रूपमात्रजन्य और पाकमारजन्य माना गया है। जब कि द्वितीय मन में चित्र रूप को कंधार, पजन्य ही माना गया है। मतलब कि विजातीय अग्निभयोग प्रथमतः अनन्यव में ही कप का उत्पन्न कंग्गा और पाक जन्य नार-पीतादि अत्रयवरूप ही निम्न उभयगम्बन्ध में स्पधिनियमपान्मक बन कर निम्न रूपागमनायिकारणनिशिए.
पासमकायिकारणत्वधर्म ग स्वसमायममवेतत्वसम्बन्ध में अवयवी में रह कर रहाँ ममत्राय सम्बन्ध में चित्र प का उन्पन्न कंग्गः । विजानीय अग्निसंयोग साक्षान अवयवी में चित्र रूप को उत्पन्न नहीं करना है। अत: डिविर काय कारणभाव के स्वीकार की कोई आवश्यकता द्वितीय मत में नहीं है ।
मगर प्रकरणकार श्रीमदजी उपयुक्त टोनों मन गोवदोपग्रस्त होन मं मान्य करत नहीं हैं। कारणतारन्तानापार कसम्यागर में गीग्य तो दोनों मत में है। प्रथम मन में विविध कार्य-कारणभार के स्वीकार का गाय आधा । पाप नाय
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