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* स्वविजातीयन्त -लसंवलितत्वपदानिशदीकरणम विजातीयांच प्रति रूपविशिष्टरूपत्वेनैव हेतुत्वम् । वैशिष्ट्यच स्वविजातीयत्वस्वसंवलितत्वोभयसम्बन्धेन, स्वजात्य चित्रत्वातिरिक्तं यत् स्ववृत्ति तदिमधर्मसमवाशित्वम् । स्वसंवलितत्व स्वसमवारिसमवेतद्रव्यसमवाथिवृतित्वम् । विजातीयचित्र प्रति च --* रालता
- चित्ररूप द्विविध रूपमात्रजं झपमात्रजातिरिक्तञ्च । ने चित्रल्वच्याप्यज्ञात्पवछिन्ने परस्परं विजातीयं च । तत्र प्रथमन्दिश्याहः → विजातीयचित्रं = समवायेन रूपमात्रजन्यचित्ररूपमात्रवृत्तिवैज्ञान्यावच्छिन्नं प्रति रूपविशिष्टरूपत्वेनैव | हेतुत्वम् । नीलजार नेतरतामिकमेकांना स । निजाताचित्रकारणनायच्छेदकवटकीभूतं वैशिष्ट्यं कन सम्बन्धन ग्राह्य ? इत्या भड़कायामाहः -> वैशिष्ट्या स्वविजातीयत्व-स्वमंवलितत्वांभयसम्बन्धेन उपादयम् । एतत्सम्बन्धगंब राष्ट्रपति स्ववजात्यश्च चित्रवानिग्निं यत् स्वनि ननिधर्मसमवायित्वमिति । यथा मालपीतकपालद्वयारब्धवटग्थलं स्वपदन नाम पग्रहण चित्रभिन्नं यन नीदम्पति नीन्दन -मृपत्व-गुणन्वादिकं तदिन्नरय पीतत्वधर्मस्य समवायनाश्रयतायाः कपालपातसगे सच्चन निझनास्वविजानीयत्वमाबन्धन नालापविशिष्ट पातम्पं भवति । स्वसंवलितत्वं च = प्रकृतं नालम्पसबस्तित्वं हि नीता पनिष्ठं स्वसमबायिसमवेतद्रव्यसमवायित्तित्वमिति । स्वपदेना-त्र कपालनालरू.पग्रहणं, तत्ममचायिनि नीलकपाले समवेतं यन घटद्रव्यं तस्य समवयेनाश्रयी भूने परतकपाले वृनि = समवन पीतमपमिनि स्वसमवायिसमवेतद्रव्यममवायिवृनित्यसम्बन्धनापि नालरूपविशिष्टं पीतरूपं भवति : यदि च द्वितीयसम्बन्धकुक्षी द्रव्यपदनिवेशो न स्यात् नहि स्वसमवायिसमवविधया नीलकणवृत्तिकयालय-अध्यन नीलरूपादपि ग्रहण : सज्यतति नदमोहाय द्रव्यादनिवाः । द्वितीयसम्बन्धानुपादाने तु नाल. कपालद्धयारब्धवटेपि समवायन चित्रान्पत्तिः प्रसज्येत. स्वविजातीयत्वसम्बन्धन पानमपविशिष्टनालरूपस्य स्वसमवायिसम. वनत्वसम्बन्धेन तत्र सन्चान् । कवलं स्वयंचलितत्वसम्बन्धन पबिशिष्टरूपवन तधावपि स एव दोपः, म्यम्मवायिममतद्रव्यसमवायिनिविलक्षण-स्वसंचलितत्वसम्बन्धन नालम्पविशिष्टनालरूपस्य स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलकपालद्वयारन्धे घटे सत्चात् । अतः प्रकृते उभयसम्बन्धन वैशिष्टयोपादानम् । निरुक्तबचनात्य-स्वसंवलितल्योभयसम्बन्धन पविशिष्टरूपं स्वसमवापिसमवतन्वसम्बन्धन पत्र नत्र समजायन म्पमात्रज विजातीयं चित्ररूपमुत्पद्यत इति कार्यकारणभावः । न च प्रकृत स्वत्वाननुगमय दोषत्वम, सम्बन्धमध्ये नत्प्रवेशात् । सम्बन्धकुक्षिप्रविष्टानां केवलं परिचायकत्वं न तु विशेषणत्वमिति सम्बन्धाननुगमम्यादीपत्वमित्यत्राभिप्रायः । द्वितीयचित्रमपम दिल्याह --> विजातीयचित्रं प्रति च = रूपमात्रजाःतिरिक्तचित्रमात्रवृनि
अवयवों से आग्ध अवयवी में चित्र रूप की उत्पत्ति कथमपि संगत हो सकती नहीं है। इस विषय का अधिक विस्तार से निरूपण न्यायवादार्थ ग्रन्थ में प्रकरणकार ने किया है। अतः उस ग्रन्थ को देखने की सूचना अधिक जिज्ञासु को मिलती है । मगर वेद की बात यह है कि वर्तमानकाल में पह ग्रन्धरत्न उपलब्ध होता नहीं है ।
* विजातीय चित्ररूप को गणता का विचार विभाइति । यहाँ अमुक विद्वानों का यह मन्तव्य है कि 'चित्र रूप के दो प्रकार है-रूपज चित्ररूप और पाकन चित्ररूप, जो परस्पर विजातीय हैं। प्रथम चित्र रूप अधांत रूपमात्रजन्य विनानीय चित्र रूप के प्रति स्वविजातीयत्व-स्वसंवलितत्व उभय सम्बन्ध रूपनिगिएकप कारण है। इन सम्बन्धों में स्वविजातीयत्वपद का अर्थ है चित्रवभिन्न स्वनि धर्मों में भिन्न धर्म का समवाय सम्बन्ध से भाश्रयत्व और स्वसंबसिनत्यपद का अर्थ है समवाय सम्बन्ध से स्त्र के आश्रय में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले द्रव्य का जो समवाय सम्बन्ध में आश्रय, उसम वृत्तित । जैसे किसी पद की उत्पनि नील और पीत कपाल से होनी है नव उम घट में विजानाय चित्र रूप की, जो रूपमात्रजन्य है, उत्पनि होती है। क्योंकि कपालगन नील रूप अन्यकपालगन पीत म्प में विशिष्ट बनता है। वह इस तरह स्वापद से ग्राह्य कपालगन नील रूप, उसमें वृनि चित्रवभिन्न धर्म नीलत्व, रूपन्य आदि । उनसे भिन्न धर्म है पीतच, जिमका समाय में आश्रय है अन्यकपालगत पीत रूप । अतः स्वस्निातीयत्वसम्बन्ध में नीलरूपविशिष्ट पंग रूप बनता है । इस तरह दूसरे सम्बन्ध के घटकीभून स्वपद से प्रतिपाय है कपालगत नाल कप, जिसका ममवापसम्बन्ध में आश्रय नाल कपाल है। उसमें समवाय सम्बन्ध से घट द्रव्य रहना है, जिसका ममचाय सम्बन्ध में आश्रय है पीत कपाल । उस पीत कपाल में नि है पीत रूप । अनः स्वसमचाथिसमवेतद्रव्यसमवापिवृत्तित्वसम्बन्ध में नीलमपविशिष्ट पात रूप हो सकता है । इस तरह उपयुक्त दोनों सम्बन्धों से रूपरिशिष्टरूप, जो कि समवाय से उत्पन