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प्रथम खण्ड
उपक्रम : एक
बोलते शब्द-चित्र सृष्टि अनादि और अनन्त है। इस दृश्यमान् जगत् में काल का चक्र सदा घूमता रहता है उसके छह भाग हैं |-- अति सुखरूप, 2- सुखरूप, 3-सुख-दु:खरूप, 4- दु:ख-सुखरूप, 5- दु:खरूप और 6- अति दुःखरूप। जिस प्रकार चलती हुई गाड़ी के पहिये का प्रत्येक भाग नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे आता-जाता रहता है, वैसे ही ये छह भाग भी क्रमवार सदा घूमते रहते हैं, अर्थात् एक बार जगत् सुख से दु:ख की ओर जाता है तो दूसरी बार दु:ख से सुख की ओर बढ़ता है। सुख से दु:ख की ओर जाने को अवसर्पिणी काल
अवनति (हास) का काल कहते हैं और द:ख से सख की ओर जाने को उत्सर्पिणी काल या उत्थान (विकास) का काल कहते हैं। इन दोनों कालों की अवधि लाखों-करोड़ों वर्षों से भी अधिक है। वर्तमान में अवसर्पिणी काल चल रहा है, जिसके प्रारम्भ के चार भाग बीत गये हैं। अब हम उसके पाँचवें भाग 'दु:खरूप' (दुषमा) से गुजर रहे हैं। प्रथम तीन भागों में भोगभूमि थी। मनुष्य जीवन की वह प्रकृत्याश्रित आदिम अवस्था थी। सारी इच्छायें कल्पवृक्षों से पूर्ण हो जाती थीं। तीसरे भाग के अन्त में भोगभूमि का अवसान होने लगा। कालचक्र के इन परिवर्तनों को देखकर लोग शंकित और भयभीत होने लगे। अतएव उन्होंने स्वयं जनसमूहों में रहना प्रारम्भ किया। मानव जीवन में सामाजिक वैधानिकता का अंकुरण हुआ। सामाजिक जीवन की नींव यहीं से पड़ी माननी चाहिए। ऐसे समय में अपनी बुद्धि एवं बल के माध्यम से जिन्होंने समाज का नेतृत्व किया, वे 'कुलकर' कहलाये। ऐसे चौदह कुलकर हुए जिनमें प्रथम प्रतिश्रुति और अन्तिम नाभिराय थे। भगवान् ऋषभदेव
नाभिराय और मरुदेवी के पुत्र ऋषभदेव हुए, जो इस युग में जैनधर्म के प्रवर्तक थे। वैदिक परम्परानुसार ऋषभदेव भगवान् विष्णु के एक अवतार हैं। जैनेतर साहित्य में श्रीमद्भागवत् का नाम उल्लेखनीय है, इसके पाँचवे स्कन्ध में ऋषभदेव का चरित्र विस्तार से चित्रित है। यह वर्णन जैन साहित्य के वर्णन से कुछ-कुछ मिलता हुआ है। उसमें लिखा है कि 'जब ब्रह्मा ने देखा कि मनुष्य संख्या नहीं बढ़ी तो उन्होंने मनु और सत्यरूपा को उत्पन्न किया। उनके प्रियव्रत नाम का लड़का हुआ। प्रियव्रत का पुत्र आग्नीध्र हुआ। आग्नीध्र के घर नाभि ने जन्म लिया। नाभि ने मरुदेवी से विवाह किया और उनसे ऋषभदेव उत्पन्न हुए। ऋषभेव ने जयन्ती नाम की भार्या से सौ पुत्र उत्पन्न किये और बड़े पुत्र भरत का राज्याभिषेक करके संन्यास ले लिया। वे दिगम्बर वेष में नग्न विचरण करते थे। उनका कामदेव के समान सुन्दर शरीर मलिन हो गया था। उन्होंने आजगर व्रत ले लिया था' आदि।
इस अध्याय का मूल आधार प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलायें', 'पुरुदेव चम्पू का आलोचनात्मक परिशीलन', 'जैन साहित्य
और इतिहास : पूर्व पीठिका', 'जैन धर्म', 'राजपूताने के जैन वीर', 'मौर्य साम्राज्य के जैन वीर', 'संक्षिप्त जैन इतिहास', 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि', 'जैन संस्कृति और राजस्थान', 'History of Jainism', आदि पुस्तकें हैं। परन्तु समय का निर्धारण 'प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलायें' के आधार पर किया गया है। विशेष अध्ययन और सन्दर्भ के इच्छुक पाठकों को उक्त पुस्तकें देखना चाहिए।
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