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प्रथम खण्ड
219 लिखा है 'बुन्देलखण्ड अपनी प्रतिभाओं को कुछ भी पढ़ाया करते थे। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा की देने में असमर्थ था। जो भी कोई पढ़ना-लिखना और स्थापना में भी आप सहयोगी रहे थे। कुछ करना चाहता था उसे दिल्ली, इन्दौर, मुरैना, 1942 के भारत छोडो आन्दोलन में आप सूरत अहमदाबाद, सूरत, वाराणसी आदि स्थानों पर जाना में गिरफ्तार कर लिये गये। श्रीमती कमलादेवी भी पड़ता था। ये साधनहीन विद्यार्थी बहुत अल्पायु में ही सभाबन्दी कानन भंग करती हई गिरफ्तार कर ली गईं घर छोड देते थे। स्व0 गणेशप्रसाद वर्णी, इन्दौर के क्योंकि वे गांधी चौक में भाषण दे रहीं थीं। दोनों का स्व) पं0 वंशीधर, अकलतरा के स्व0 40 पन्नालाल सौभाग्य था कि दोनों को एक साथ साबरमती जेल और बाद की पीढी में पं0 बाबूलाल जमादार, मगनलाल में रखा गया। पर पण्डितानी जी बाजी मार गईं उन्हें जैन, प) सुखनन्दन जैसे सैकड़ों लोग इसी प्रकार बाहर पांच माह जेल में रहना पड़ा और पं0 जी को चार निकले थे। ये विद्वान् बीसों नगरों और कस्बों में आज
माह। जेल में आपके साथ आपका तीन वर्षीय पुत्र आजीविका के लिए संघर्ष करते हुए भी जैन चिन्तन
जैनेन्द्र भी था। परन्तु आपके मित्र श्री साकेरचन्द्र सरैया को गतिशील बनाये हुए हैं।
ने बालक को अपने पास जेल से वापिस बुला लिया पं0 परमेष्ठीदास ने भी बचपन में घर छोड़ा।
और भयंकर बीमारी में भी बहुत सेवा करके उसके पढ़ाई की। अनेक जैन ग्रन्थों का पाठसंशोधन-संपादन
प्राण बचा लिये थे। किया, कई मौलिक पुस्तकें लिखीं, सैकड़ों मित्र बनाये, पचासों को प्रेरणा और प्रोत्साहन दिया। संस्कृत, प्राकृत,
__ हिन्दीभाषा का प्रचार महात्मा गांधी के हिन्दी और गुजराती पर अपने असाधारण अधिकार
रचनात्मक कार्यों में से एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। इस के कारण उन्हें सर्वत्र आदर और आत्मीयता मिली;
कार्य में आप दोनों पूरी तन्मयता से लगे रहे। जेल
में आप लगभग 500 साथियों को राष्ट्रभाषा की शिक्षा लेकिन वे शुद्ध उदास पण्डित कभी नहीं रहे। म आप लगभ हँसी-मजाक और नोकझोंक के बिना वे अधिक देर
देते थे। ये सभी गुजराती थे। जेल में ही परीक्षा भी नहीं रह सकते। इस मामले में उनकी समानता उनके ली और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा की ओर से स्व0 मित्र पं0 नाथूराम 'प्रेमी' से की जा सकती है।' प्रमाणपत्र दिलवाये। ___पं0 जी का विवाह कमलादेवी के साथ हुआ
1944 में प्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्र कुमार जो सही अर्थों में पं0 जी की सहगामिनी बनीं। जब के साथ आपने 'लोक जीवन' मासिक पत्र का सम्पादन पं0 जी सूरत में जेल गये तो कमलादेवी भी उनके किया। 1932 से ही आप अ0 भा0 दि0 जैन परिषद् साथ जेल गईं।
के मुख पत्र 'वीर' से जुड़ गये। पहले सम्पादक रहे मात्र 22 वर्ष की अवस्था में परमेष्ठीदास जी और फिर प्रधान सम्पादक। परिषद् के 1938 में सतना सूरत (गुजरात) गये और प्रसिद्ध समाचार पत्र 'जैन तथा 1950 में दिल्ली में सम्पन्न हुए अधिवेशनों में मित्र' के सम्पादकीय कार्यालय में सहायक बन गये. 'मरण भोज विरोधी', 'हरिजन मंदिर प्रवेश' प्रस्तावों बाद में वे वर्षों तक जैनमित्र के सम्पादन से जड़े रहे। को पेश करने के कारण विरोधियों की कटु आलोचना 1932 में आपने सूरत में हिन्दी प्रचारक मण्डल की का शिकार आपको होना पड़ा था। स्थापना की। जिसके अन्तर्गत सूरत में अनेक हिन्दी - जैन पत्रकारिता के क्षेत्र में पं0 जी का नाम स्कूल चलते थे। इन स्कूलों में आप सपत्नीक नि:शुल्क अग्रगण्य है। वे 'वीर' से अन्तिम समय तक जुड़े रहे,
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