Book Title: Swatantrata Sangram Me Jain
Author(s): Kapurchand Jain, Jyoti Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 472
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम खण्ड ___ 395 पता-विनोद मिल्स, उज्जैन" एक अन्य विज्ञापन भी देखें "भारतीय कारीगरी की मदद करो-'' "जहाँ में गर वतन की लाज रखनी हो तो लाजिम है। स्वदेशी वस्त्र पर हर एक बशर सौजां से शैदा हो।। जैन मित्र के नियमित प्रकाशन के सन्दर्भ में तीर्थंकर (अगस्त-सितम्बर 1977, पृष्ठ-160) लिखता है "लड़ाई के जमाने में अनेक पत्रों ने प्रेस की अव्यवस्था से अपना प्रकाशन बन्द किया, कितनों ही ने कागज के अभाव में गहरी नींद ले ली, पर "मित्र" बराबर प्रकट होता रहा। कापडिया जी सूर्योदय की तरह नियमित पत्रकारिता में विश्वास रखते हैं।" भा0 दि) जैन महासभा का मुख पत्र "जैन गजट" 1895 में प्रारम्भ हुआ था, पत्र ने अपने सम्पादकीयों में स्वदेशी का खूब प्रचार किया। 16 मार्च 1905 के अंक में लिखा गया है कि-'हमें अपने देश में इतने कारखाने लगाना चाहिए जिससे विदेशों से माल मंगाने की आवश्यकता ही न पड़े।' इस पत्र ने 1947 के विविध अंकों में पाकिस्तान के जैन मन्दिरों के विनाश की जानकारी पाठकों को दी थी। देवबन्द (उ0 प्र0) से प्रकाशित होने वाले "जैन प्रदीप'' (उर्दू) का उदय तो मानों विदेशी शासन से मुक्ति दिलाने के लिए ही हुआ था। इसके सम्पादक श्री ज्योति प्रसाद जैन राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत थे, उन्होंने पत्र के अप्रैल 1930 तथा मई-जून 1930 के अंकों में भगवान महावीर और महात्मा गांधी" शीर्षक लेख उर्दू में लिखा। लेख का सारांश था कि-"जैसे महावीर ने यज्ञों से मुक्ति दिलाई वैसे ही गांधी जी विदेशी शासकों से मुक्ति दिलायें।" इस पर पत्र की जमानत जब्त होने की नौबत आई। कलक्टर ने बहुतेरा समझाया कि-"आप मेरे पिता के मित्र हैं, आप इतना लिखकर दे दो कि मेरे लिखने का भाव वह नहीं जो सरकार ने समझा है, बाकी मैं देख लूँगा" पर ज्योति प्रसाद जी ने कहा-"मैं झूठ कैसे लिख दूँ, मेरा भाव वही है जो सरकार ने समझा है।'' अन्त में लेख और जमानत जब्त हो गई और पत्र का प्रकाशन भी बन्द हो गया। श्री कुलभूषण जी ने पुन: उसका प्रकाशन प्रारम्भ किया है। कुछ जैन पत्रों ने तो अंक ही नहीं अपने विशेषांक भी स्वाधीनता पर निकाले, इनमें "जैन प्रकाश" का नाम अग्रगण्य है। पत्र ने 25 नवम्बर 1930 को अपना राष्ट्रीय अंक निकाला। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का वह ऐतिहासिक काल था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में उस समय असहयोग आन्दोलन चल रहा था, ऐसे में राष्ट्रीय अंक निकालना कितने साहस का काम था। इसके सौ पृष्ठों की सामग्री में गुजराती और हिन्दी में स्वतन्त्रता पर ही पूरे लेख/कवितायें लिखी गईं हैं। इसी तरह भा0 दि0 जैन संघ, मथुरा (उ0 प्र0) के मुख पत्र "जैन सन्देश'' ने भी 23 जनवरी 1947 को अपना राष्ट्रीय अंक निकाला। अनेक महत्त्वपूर्ण लेखों के साथ ही अनेक जैन शहीदों/जेल यात्रियों का परिचय इसमें है, कवितायें नव-जागृति लाने वाली हैं। प्रथम पृष्ठ पर "स्वाधीनता की प्रतिज्ञा'' नाम से स्वतन्त्रता के जन्म सिद्ध अधिकार का समर्थन किया गया है। राष्ट्रगीत की तर्ज पर एक सुन्दर गीत भी इसमें For Private And Personal Use Only

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