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स्वतंत्रता संग्राम में जैन देश निज चहुँ ओर से आतंकशाला बन गया है। ज्ञान सारा नष्ट होकर दानवी रण ठन गया है।। ईश! मानव प्रेम की सुन्दर "कली'' मुरझा न जाये। आज फिर संसार में सर्वत्र ही सुख-शान्ति छाये।।"
-राम कली देवी "कली'', धामपुर इसी प्रकार ब्याबर से प्रकाशित "जैन शिक्षण सन्देश'' के अक्टूबर 1937 के अंक में प्रकाशित "जीवन की'' विषयक समस्यापूर्ति भी द्रष्टव्य है
"मा तुमको स्वाधीन बनाने दादा ने अपनी बलि दी। लोकमान्य ने कुर्बा हो स्वाधीनताग्नि उत्तेजित की।। तेरे हित पंजाब केसरी, "लाला" ने बहुकष्ट सहे। भारत भक्त "भगतसिंह'' "बी-के" जेलों में नित सड़ते रहे।। तो फिर हमको आज्ञा दे तूं बलिदानामृत जीवन की।
जिसको पीकर भारत हित हम, बलि दें अपने "जीवन की''।" इनके अतिरिक्त भी अनेक पत्र-पत्रिकायें हैं, जिनमें आजादी विषयक लेख/समाचार छपे हैं।
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‘भाई मरने से डरे नहीं और जीवन की भी कोई साध नहीं है, भगवान् जब, जहाँ, जैसी अवस्था में रखेंगे, वैसी ही अवस्थान में सन्तुष्ट रहेंगे।'
- मृत्युदण्ड प्राप्त श्री मोतीचंद जैन का जेल से अपने विप्लवकारी साथियों को भेजे गये पत्र का एक अंश
जीवितात्तु पराधीनाज्जीवानां मरणं वरम्। मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्णं केन कानने।।
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