________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
परिशिष्ट-चार : विशिष्ट लेख
राष्ट्रीयता क्या है
जैन जगत के तलस्पर्शी विद्वान् प० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ ने यह लेख 'जैन संदेश, राष्ट्रीय अंक' (23-1-1947) में लिखा था। उसे अविकल हम यहाँ दे रहे हैं।
जब हमें हमारी भाषा में Nationalism शब्द के अनुवाद करने की आवश्यकता हुई तब हमारे सामने यह शब्द आया। जिस भाषा का यह शब्द है उस भाषा के व्याकरण के अनुसार इसका शुद्ध रूप क्या है और
चीन काल में वह किस अर्थ में प्रयुक्त होता था इस पर बहस करने का यह समय नहीं है क्योंकि अब तो यह हिन्दी भाषा के शब्द कोष में एक आदरणीय स्थान प्राप्त कर चुका है। शब्दों के सर्जक तो भाव हैं। हमें भावों को लेकर ही आगे बढ़ना है।
राष्ट्रीयता एक सम्मान की वस्तु है। उसमें एक संस्कृति, एक कल्पना और एक परम्परा का अर्थ निहित है। संप्रदाय, जाति और वर्ग की अनेक भिन्नताओं को रखते हुए भी जो अभिन्न है, वह राष्ट्र है। वह एक विशाल जाति है जिसे अंगरेजी में Nation कहते हैं। राष्ट्र सर्वोपरि है, संप्रदाय, वर्ग और जाति की भूमिका, इससे बहुत नीची है। राष्ट्र वह है जिसके लिये इन सबका बलिदान किया जा सकता है किन्तु राष्ट्र का बलिदान इनमें से किसी के लिये भी नहीं किया जा सकता।
राष्ट्र ब्रह्म की तरह व्यापक है। वह समष्टि है, व्यष्टि नहीं, पर व्यष्टि समष्टि से भिन्न कहाँ है ? राष्ट्रीयता में समष्टि और व्यष्टि के व्यापक स्वार्थ भिन्न-भिन्न नहीं होते। कोटि-कोटि अथवा लक्ष-लक्ष नर-नारियों की एक भावना, एक विचार और एक उद्देश्य राष्ट्रीयता ही उत्पन्न कर सकती है। राष्ट्रीयता में समष्टि की स्वाधीनता का महान उद्देश्य सदा चमकता रहता है और उसमें "जीवतात्तुपराधीनाज्जीवानां मरणं वरम्, मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्णं केन कानने'' (महाकवि बादीभसिंह) जैसी सूक्तियाँ सदा ही जीवन रस प्रदान करती रहती हैं।
सच्ची राष्ट्रीयता में किसी का शोषण नहीं होता। यहाँ विचार स्वातंत्र्य और व्यक्ति स्वातंत्र्य को दलित करने की चेष्टा नहीं की जाती। यह विमुक्त हस्त होकर सबको सब कुछ देने वाली है। इसमें श्रेणीराज्य, पूँजीवाद
और साम्राज्यवाद जैसी जघन्यताओं को कोई स्थान नहीं है। क्योंकि ये सभी चीजें व्यापक राष्ट्रहित की विघातक हैं। प्रजातन्त्र और साम्यवाद जैसी सुहावनी चीजों में भी यदि सच्ची राष्ट्रीयता नहीं है तो वह अमृत नहीं, हलाहल हैं और वह कभी न कभी राष्ट्र का प्राण जरूर लेंगी !
यह राष्ट्रीयता न पर का कुछ छीनना चाहती है और न अपना कुछ देना चाहती है। यह 'ओफेंस' नहीं किन्तु 'डिफेंस' करती है। कोई अपना कुछ छीनना चाहे तो वह अपने व्यापक ब्रह्म को लेकर उस पर टूट पड़ेगी और तब तक दम न लेगी जब तक आक्रमणकारी को पूरा परास्त न कर दे। रूस की राष्ट्रीयता ने विगत महायुद्ध में वही किया। जर्मनी में भी सच्ची राष्ट्रीयता नहीं थी, नहीं तो वह कभी न हारता। उसमें लुटेरापन था। उसने अन्य छोटे-बड़े राष्ट्रों पर बुरी तरह का आक्रमण किया। उसको तात्कालिक सफलता मिली। इसलिये इटली का मन भी ललचाया और वह भी उसका भागीदार बना ; सोचा कि संसार की लूट में उसे भी कुछ
For Private And Personal Use Only