Book Title: Swatantrata Sangram Me Jain
Author(s): Kapurchand Jain, Jyoti Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 460
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रथम खण्ड तो उन्होंने अपनी सुन्दर हस्तलिपि में आज के परिवेश पर कटाक्ष करती हुई सम्भवतः सद्य:- प्रसूत निम्न कविता भेजी थी, जिसे हम साभार यहाँ दे रहे हैं। संगठित सार अँधेरे हो गए हैं, एक मेरा दीप कब तक टिमटिमाए ! तम हटाए ! पतझरों ने संधि कर ली आँधियों से, अल्पमत में हो गई हैं अब बहारें, बाग के दुश्मन बने खुद बागबाँ अब, प्रश्न यह है बुलबुलें किसको पुकारें ! पद-प्रतिष्ठा बाँट ली है उल्लुओं इस चमन को कौन मरने से बचाए ! संगठित सारे... ..! www.kobatirth.org रात ने चेहरा पहिन रक्खा सुबह का, जुगनुओं ने नाम सूरज रख लिया है, चाँदनी को कह रहीं 'वेश्या' तमिस्त्रा, रख लिया तम ने रहन हरइक दिया है, आँखवाली बन गई चमगादड़ें सब जन्म के अन्धे मशालों के पहरुए, और दृष्टा मौन नजरों को झुकाए । संगठित सारे ! कंठ तक डूबे हुए जो गन्दगी में, स्वच्छता के वे निरीक्षक बन गए हैं, योजनाओं को निगल बैठे स्वयम् जो, वे विफलता के समीक्षक बन गए हैं ! आग लगने को विकल है आज या कल, हर तरफ चिनगारियाँ गुस्सा पिए हैं, कौन इनको बाँध कर सूरज बनाए ! संगठित सारं I शब्द के जादूगरो, तुम सोच लो तो, स्वाहियों का रंग बदले, ढंग बदले, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 383 पंगुओं को गति मिले, वाणी मुखर हो, पथ बदले, यात्रियों का संग बदले, स्वर्ण मृग-सी दूर, प्रतिपल दूर है जो, वही मंजिल कल्पना की जो चहेती, पाँव की पायल बने, घुँघरू बजाए ! संगठित सारे अँधेरे हो गए है, एक मेरा दीप कब तक टिमटिमाए ! तम हटाए ! (आ)- (1) जै० स० रा) अ (2) वि० अ०, पृष्ठ-542 (3) र0 नी), पृष्ठ-20. (4) आधुनिक जैन कवि, पृष्ठ- 66 (5) मेरे बापू (6) स्वप्रेपित कविता ( 7 ) तीर्थकर, जनवरी 1998 श्री हुकमचंद नारद अपनी निर्भीक पत्रकारिता, मनस्विता, कर्मठता और अपराजेय संकल्प शक्ति से देश के स्वाधीनता संग्राम के पथ को प्रशस्त करने वाले श्री हुक्मचंद नारद का जन्म 14 जनवरी 1903 को सतना (म0प्र0) में श्री मूलचंद नारद के यहाँ हुआ। अल्पायु में ही श्री हुक्मचंद नारद पितृछाया से वंचित हो गये, लेकिन बजाय परिवार की चिन्ता करने के, वे स्वाधीनता संग्राम में कूद गये। जीवन के पूर्वार्ध में जहाँ एक ओर आपको सामन्तवादी तत्त्वों से संघर्ष करना पड़ा वहीं कालान्तर में आप ब्रितानी सत्ता के आक्रोश का भी शिकार बने। For Private And Personal Use Only मैहर का तत्कालीन शासक बेहद अहम्मन्य और क्रूर था। राजाज्ञा थी कि रियासत के भीतर कोई भी व्यक्ति 'गाँधी टोपी पहनकर नहीं निकल सकता। स्वाधीनचेता नागरिकों और देशी राज्य प्रजापरिषद् के सदस्यों पर दमनचक्र पूरे जोर से चल रहा था। तब भी नारद जी गाँधी टोपी लगाकर मैहर की सड़कों से गुजरे और गाँधी टोपी लगाकर ही उन्होंने मैहर के

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