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प्रथम खण्ड
287
विमलचंद को लिखे 12 फरवरी 1958 के पत्र ही हैं। आती भी रहेंगी किन्तु हमारे पुरुषार्थ और कर्म में वे लिखते हैं-'.....मैं चाहता हूँ तुम इन्दौर लौट आवो। में निर्बलता नहीं रहनी चाहिए। जो कुछ रूखी-सूखी भगवान् देगा, उसे उसका प्रसाद मैंने यह देखा है कि तम हिसाब ठीक से मानकर संतोष कर लेंगे।.....'
सिलसिलेवार नहीं रख पाते। यह कमजोरी है, इसे दूर
करना चाहिए।.....' 21 दिसम्बर 1958 के पत्र में विमलचंद जी
इसी विषय में 24 मार्च 1965 के पत्र में वे को वे लिखते है-'.....पैसे को पूर्व से अधिक महत्त्व
लिखते हैं-'पिछले महीने से तुम्हारी मांग अधिक हो देने लगे हो। दुनियाई चीजों को आवश्यकतानुसार महत्त्व दिया जाना चाहिए। लेकिन वे मनुष्य के सिर पर
रही है। व्यय आवश्यकतानुसार ही रहे तो ठीक है।
फिजूलखर्च की गुंजाइश कम ही है। यों भी तुमने हिसाब चढ़कर नाचने लगें, उसके मन का सुख हर लें। इससे तो सदा मनुष्य को सावधान रहना है। तुम्हें भी इस
: नहीं भेजा है। आशा है व्यय में अतिरेक नहीं हुआ दोष से बचना है......'
होगा।.....'
28 जलाई 1959 के पत्र में गंगवाल जी ने ।। अगस्त 1965 के पत्र में निर्मलबाबू को लिखा है-....मैंने जीवन में किसी के सहारे की अपेक्षा गंगवाल सा0 ने लिखा थाही नहीं की, सिवा भगवान् के। आखिर मुनष्य स्वयं .... धर्म सदाचार तो जीवन का सार ही नहीं, एक खुदगर्ज निर्बल प्राणी है, वह क्या किसी को सहारा स्वयं जीवन है। जिसके हाथ में उसकी ध्वजा है, वह दे सकता है। इसी विश्वास के बल पर मैं सदा डूबेगा नहीं, सदा उभरेगा और सम्पन्न रहेगा। तुमने जिन्दा रहा हूँ और आज भी उसी का भरोसा कर पूजन प्रारम्भ किया है, यह अधिक सुख देने वाली निश्चिन्त हूँ।'
बात है।...'
विमलचंद को ही लिखे ।। अगस्त 1959 के
जीवन के अवसान से लगभग 3 वर्ष पूर्व 22 पत्र में उन्होंने लिखा है- '...निर्दोष और अच्छे से अच्छे । काम के भी टीकाकार होते ही हैं। ...प्रभाव का उपयोग
___ मार्च 1978 को निर्मल बाबू के नाम लिखा पत्र कितना बुरा नहीं और न वह पाप ही है फिर भी वह राजमार्ग ।
मार्मिक है। कुछ अंश देखेंनहीं। जो राजमार्ग नहीं, वह दीनों और असमर्थों का मार्ग
.... क्रियाशीलता भी प्रतिदिन घट रही है। है। हमें जहाँ तक सम्भव हो उससे बचना है। फिर भी शरीर-शक्ति में कमी आने लगी है। चलने-फिरने में स्वाभिमान से जीने के लिए कुछ करना तो पड़ेगा। उसका बहुत कठिनाई होती है। यह सब अवस्था के परिणाम जरिया जनमार्ग ही होना चाहिए।.....'
हैं। इनसे न चिन्तित हूँ न दु:खी। दु:ख-सुख का जो
अनुभव होता है, उसको विवेक के सहारे आनन्दपूर्वक श्री निर्मलबाब को लिखा 28 जनवरी 1965 का भुलाकर सब क्रियायें उत्साह और प्रमोद भाव से करता पत्र निम्न प्रकार है
रहता हूँ। मुझे न बंगला और न अन्य भौतिक चीजें ..... मनष्य को निराश और हतोत्साहित नहीं होना जीवन में लुभा सकीं। मैं अपने साधारण ढंग से जीया चाहिए। जीवन में सफलतायें और असफलतायें आती हूँ और जीऊंगा...'
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