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प्रथम खण्ड
गुजरात के प्रतापी सोलंकी राजा भीमदेव प्रथम ( 1010-1062 ई0) का कृपापात्र एवं स्वामिभक्त अमात्य पोरवाड़वंशी जैन श्रेष्ठि विमलशाह था, जिसने अपने राजा के लिए अनेक युद्ध किये थे। इसने ही आबू पर्वत पर विश्वविख्यात भगवान् आदिनाथ का मन्दिर बनवाया था।
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उक्त भीम प्रथम का पौत्र चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज (1094 1143 ई0) बड़ा उदार राजा था। वह महादेव का उपासक था तो महावीर का भी भक्त था। जैन तीर्थ शत्रुञ्जय की यात्रा कर उसने आदिनाथ जिनालय को बारह ग्राम समर्पित किये थे । हेमचन्द्राचार्य ने इस राजा के लिए ही 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ रचा था। इसी राजा ने उन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' की उपाधि प्रदान की थी।
जयसिंह के बाद कुमारपाल सोलंकी 1143 ई0 में गुजरात के सिंहासन पर बैठा उसके गुरु आचार्य हेमचन्द्र थे। कुमारपाल की 1150 ई0 की चित्तौड़ प्रशस्ति के रचयिता दिगम्बराचार्य जयकीर्ति के शिष्य रामकीर्ति मुनि थे। कुमारपाल पहले शैव था । किन्तु हेमचन्द्र के उपदेश से उसने 1154 ई0 में जैनधर्म स्वीकार कर लिया गया था। उसने शत्रुञ्जय और गिरनार की यात्रा की थी । इतिहासकारों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की हैं और अशोक महान् से इसकी तुलना की है। आचार्य हेमचन्द्र के अकस्मात् स्वर्गवास होने पर वियोग में 6 माह बाद ही कुमारपाल की मृत्यु हो गई थी। एक मत के अनुसार आचार्य की मृत्यु के 32 दिन बाद स्वयं उसके भतीजे अजयपाल ने विष देकर उसकी हत्या कर दी। अजयपाल जैनधर्म का बड़ा विद्वेषी था। उसके एक जैन मंत्री यशपाल ने 'मोहपराजय नाटक' लिखा है।
गुजरात के धोलका (धवलपुरी) के सामन्त वीरधवल एवं उसके उत्तराधिकारी बीसलदेव बघेले के मंत्री भ्रातृद्वय वस्तुपाल और तेजपाल का नाम अपनी धार्मिक प्रवृत्ति के कारण अमर हो गया है। मंत्रीश्वर वस्तुपाल ने गुजरात के स्वराज्य को नष्ट होने से बचाने के लिए अपने जीवन में त्रेसठ बार युद्धभूमि में गुर्जर - सैन्य का संचालन किया था। आबू (देलवाड़ा) के विश्वविख्यात कलाधाम नेमिनाथ का अद्वितीय मन्दिर उसने 1232 ई0 में करोड़ों रुपये व्यय करके बनवाया था। उसने अनेक मन्दिरों और मस्जिदों को भी दान दिया था। 'पुरातनप्रबन्धसंग्रह' से विदित होता है कि बीसलदेव बघेले के शासनकाल 1257 ई0 में भीषण दुर्भिक्ष पड़ने पर जगडूशाह ने दुष्काल की सहायतार्थ लाखों मूड़ (रुपया) तत्कालीन शासकों को दिये थे।
मध्यकाल पूर्वार्ध (लगभग 1200 - 1550 ई०)
अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल (1296 1316 ई0 ) में राजधानी दिल्ली के सेठ पूरणचन्द का सुल्तान के दरबार में प्रतिष्ठित स्थान था । 'सुकृतसागर' ग्रन्थ में उनके लिए 'अलाउद्दीनशाखनिमान्यः ' पद का प्रयोग किया गया है। पूरणचन्द के निवेदन पर भट्टारक माधवसेन ने दिल्ली दरबार में शास्त्रार्थ भी किया था। दिल्ली में इसी समय में सेठ दिवाराय, रत्नपरीक्षक ठक्कर फेरु, पाटन के सेठ समराशाह आदि हुए, जो राजमान्य थे।
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मालवा की राजधानी इन दिनों ( 1387 1564 ई0 ) माण्डू थी। मालवा के राजमन्त्रियों के प्रसिद्धवंश में उत्पन्न मंत्रीश्वर मण्डन, सुल्तान होशंगशाह गोरी (1405 - 32 ) का महाप्रधान था। वह सर्वविद्याविशारद था और उसने श्रृंगार मण्डन' आदि कई ग्रन्थों की रचना की थी। मण्डन तथा उसके चचेरे