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स्वतंत्रता संग्राम में जैन विजयदेव (पार्श्वनाथ) और ज्वालामालिनी देवी की प्रतिमाएँ पुनः प्रतिष्ठित कराई थीं, जो इसकी जैन धर्म के प्रति श्रद्धा का प्रमाण है। कृष्णराज ओडेयर के प्रधान अंगरक्षक राजा देवराज अरसु राज्यसेवा से अवकाश प्राप्त कर जीवन के अन्तिम दिनों में श्रवणबेलगोल में भगवान् गोम्मटेश के चरणों में रहने लगे थे। मैसूर राज्य के प्रसिद्ध विद्वान् पण्डित देवचन्द्र राज्य में करणिक के पद पर प्रतिष्ठित थे। 1804 में जब कर्नल मेकेन्जी कनकगिरि का सर्वेक्षण करने आया तो पण्डित जी उसके सम्पर्क में आये। कर्नल ने राजा से उन्हें सहायक के रूप में मांगा। इसी कारण पण्डित देवचन्द्र 'कर्नल मेकेन्जी के पण्डित' नाम से विख्यात हुए।
जैन राजनैतिक व्यक्तियों में कटक के मंजु चौधरी का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है। जैन धर्म । साहित्य / संस्कृति । कला के लिए विख्यात बुन्देलखण्ड के ललितपुर जिले के नहरोनी तहसील के कुम्हेणी ग्राम में मंजु चौधरी का जन्म एक साधारण जैन परिवार में हुआ। बाल्यावस्था में माता-पिता का निधन हो गया, जो था वह जुए में हरा दिया। अन्ततः पैदल ही एक दिन के अन्तराल से रोटी खाते, मजदूरी करते 1740-45 के लगभग नागपुर पहुंचे। वहाँ छोटा-मोटा धन्धा किया, भाग्य और पुरुषार्थ ने साथ दिया तो राजा मुकुन्ददेव के दरबार में पैठ बना ली। अपनी बुद्धिमत्ता और साहस के बल पर वे मराठा सरदार रघुजी भोंसले के मोदी और इतने विश्वासपात्र बन गये कि भोंसले ने इन्हें कटक के राजा के दरबार में चौधरी नियुक्त कर दिया। बाद में उन्होंने बंगाल के नवाब से युद्ध का निश्चय किया। नवाब डरकर भाग गया तब भोंसले और राजा मुकुन्ददेव ने उन्हें दीवान बना दिया। राज्य की ओर से उन्हें कटक में जागीरदारी मिली तथा एक बाजार भी उपहार स्वरूप मिला जो आज भी चौधरी बाजार कहलाता है। आपने खण्डगिरि पर 1760 के लगभग एक जैन मन्दिर बनवाया था। मंजु चौधरी के बाद उनका भान्जा भवानीदास चौध री (भवानी दादू) उनके पद पर प्रतिष्ठित हुआ। उसके बाद भवानी का छोटा भाई तुलसी दादू चौधरी हुआ।
लखनऊ में 'राजा' पदवी से विभूषित तथा राजमान्य राजा बच्छराज नाहटा ने नगर में प्रसिद्ध श्वेताम्बर जैन मंदिर बनवाया था। दिल्ली के राजा हरसुखराय मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय (1759-1806) के शाही खजाञ्ची और जौहरी नियुक्त हुए थे। हरसुखराय के पुत्र राजा सगुन चन्द भी पिता की तरह खजाञ्ची थे। इन्होंने अनेक जैन मंदिर बनवाये, जिनमें हस्तिनापुर का प्रसिद्ध प्राचीन जैन मंदिर भो है। अवध के नबाब वाजिद अली शाह ने सेठ सगुनचन्द का विशाल स्वर्णजटित चित्र बनवाकर उन्हें भंट किया था।
राजस्थान के किशनगढ़ राज्य के चौधरी रत्नपाल नामक जैन सामन्त वहाँ के राजा से रुष्ट होकर बुन्देलखण्ड (वर्तमान म0प्र0) के चन्देरी में आ बसे थे। बाद में वहाँ के राजा से इन्हें जागीर व चौधराहट मिली। इनका परिवार बहुत समय तक चौधरी होता आया। इसी वंश में चौधरी हिरदै सहाय हुए जिनकी 'सवाई' और 'राजधर' उपाधियां थीं। सिंघई सभासिंह भी चन्देरी के प्रधान कारकुन थे, इन्होंने थूवान जी में 35 फीट ऊँची देशी पाषाण की भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। इन्हीं सभासिंह ने चन्दरी की प्रसिद्ध चौबीसी बनवाई थी।
इनके अतिरिक्त भी अनेक राजमान्य जैन व्यक्ति इस काल में हुए जिनमें राजा लक्ष्मण दास, प्रसिद्ध हिन्दी लेखक राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द, राय बद्रीदास, डिप्टी कालेराय, पण्डित प्रभुदास, सेठ मूलचंद सोनी, सेठ माणिकचन्द जे0पी0, राजा चन्दैया हेगड़े, सर सेठ हुकुमचंद, सर मोतीसागर, राजा बहादुर सिंह सिंघी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
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