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स्वतंत्रता संग्राम में जैन धीरे-धीरे एकता, संगठन, नीति और दृढ़ता के बल पर अंग्रेजों ने इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दबा दिया। उल्लेखनीय है कि विद्रोह के समय भारतीय सेना अंग्रेजों से सात गुनी अधिक थी। विद्रोहियों के साथ नागरिकों की सहानुभूति, दिल्ली पर विद्रोहियों का अधिकार तथा यातायात के साधन भंग होने के बाद भी विद्रोह दबाने में अंग्रेजों की सफलता आश्चर्यजनक थी।
इस संग्राम ने जहां भारत में नवजागरण युग का सूत्रपात किया और भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की ऐसी सुदृढ़ नींव रखी जिस पर आज के भारत की भव्य अट्टालिका खड़ी हुई है। वहीं दूसरी ओर अंग्रेज सरकार ने भी सतर्क होकर वास्तविकता और उग्र भारतीय मानसिकता को पहचाना, जिसके परिणाम स्वरूप इंग्लैंड की संसद ने एक कानून पासकर भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया। इसके तहत अब शासन व्यवस्था कम्पनी के हाथ से सीधे इंग्लैंड की महारानी के पास पहुंच गई। भारत के गवर्नर जनरल के स्थान पर वाइसराय के पद की घोषणा की गई।
इस घोषणा के बाद भारत का नेतृत्व 'भारत-सचिव' के पास पहुंच गया, जिसके सहयोग हेतु एक भारत परिषद् बनाई गई। भारत-सचिव का मुख्यालय लन्दन में था, जो सिर्फ ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के प्रति उत्तरदायी था, किन्तु इसका समस्त खर्च भारत की जनता उठाती थी। इसका प्रतिनिधि वाइसराय था, जो ब्रिटिश संसद द्वारा निर्धारित नीतियों के तहत भारत का शासन चलाता था।
उक्त घोषणा के अधीन भारत का शासन दो धाराओं में बंट गया। एक धारा सीधी ब्रिटिश साम्राज्य के नियंत्रण की थी एवं दूसरी धारा 562 रजवाड़ों की थी, जिनके ब्रिटिश राजा के साथ संधिगत सम्बन्ध थे। इनमें कुछ रजवाड़े तो बहुत छोटे (लगभग । वर्ग कि0मी0 एवं आबादी लगभग 100) एवं हैदराबाद जैसे, कुछ बहुत बड़े थे जिनका क्षेत्रफल ब्रिटेन से अधिक था।
आम जनता की बात शासन के समक्ष रखने के सदैव प्रयत्न होते रहे। 1851 में कलकत्ता में 'ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन' की स्थापना की गई। इसी तरह 1852 में 'बम्बई प्रेसीडेंसी एसोसिएशन', 1852 में ही 'मद्रास नेटिव एसोसिएशन' सन 1867 में 'पूजा सार्वजनिक सभा', 1876 में 'इण्डियन एसोसिएशन' और 1881 में मद्रास में 'महाजन सभा' की स्थापना की गई। शासन के सामने जनता का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए अखिल भारतीय स्तर की संस्था की आवश्यकता महसूस होने लगी। इसको कार्यरूप में परिवर्तित करने का काम एक अवकाश प्राप्त ब्रिटिश अफसर 'एलेन ओक्टेवियन ह्यूम' ने किया, जिसने देशभर के चोटी के नेताओं से सम्पर्क किया और उन्हें एक मंच पर लाकर 1885 में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थापना की। स्थापना अधिवेशन गोकलदास तेजपाल संस्कत कॉलेज. बम्बई में दिनांक 28 से 30 दिसम्बर 1885 को हआ. इसमें देश के 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। भाग लेने वालों में से कुछ थे। उमेश चन्द्र बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, काशीनाथ त्रयंवक तैलंग, फिरोजशाह मेहता, एस0 सुब्रह्मण्यम् अय्यर, पी0 आनंद चानू, दीनशा एदलजी वाचा, गोपाल गणेश आकरकर, जी0 सुब्रह्मण्यम् अय्यर, एम0 वीर राघवाचार्य, एन0जी0चंद्रावरकर, रहमतुल्ला, एम0सयानी आदि और सरकारी अधिकारी विलियम वैडरबर्न और महादेव गोविन्द रानाडे। श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, जो उस समय के चर्चित नेता थे, इस सम्मेलन में भाग नहीं ले सके, क्योंकि उसी समय उन्होंने कलकत्ता में एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया था।
अधिवेशन गोकुल
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