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प्रथम खण्ड
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आमसभा के रूप में परिणत हो गई। डिप्टी कमिश्नर पुलिस बल के संरक्षण में किसी तरह जान
बचाकर भागा।
महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये व्यक्तिगत आन्दोलन में प्रेमचंद जी ने 14 जनवरी 1941 को हटा तहसील के प्रसिद्ध मेला 'सरसूमा' में, जहाँ अत्यधिक जनसमुदाय संक्रान्ति के पर्व के कारण एकत्रित होता है, सत्याग्रह किया। ब्रिटिश शासन के विरोध में उन्होंने ओजस्वी भाषण देने के बाद युद्ध विरोधी नारे लगाये, परिणामस्वरूप आपको गिरफ्तार कर दमोह लाया गया। मि) राजन न्यायाधीश के न्यायालय में मुकदमा चला, आपको 4 माह के कारावास की सजा दी गई और सागर जेल भेज दिया गया। कुछ दिन बाद आपको नागपुर जेल में स्थानान्तरित कर दिया गया।
इसे 'विधि की बिडम्बना कहें या सिंघई जी को भारत माँ की स्वाधीनता की बलिवेदी पर प्राणोत्सर्ग करने का सौभाग्य !' जिस डिप्टी कमिश्नर फारुख को प्रेमचंद जी के कारण दमोह से जान बचाकर भागना पड़ा था, वही स्थानान्तरित होकर नागपुर जेल में पहुंच गया। जेल में निरीक्षण के समय उसने सिंघई जी को देखा, पूर्व स्मृतियां उद्बुद्ध हो गईं, फारुख आग-बबूला हो गया, उसे लगा 'शिकार आज जाल में स्वयं फंसा पड़ा है, अब देखूंगा इसे, निकालूंगा इसका आजादपना, ऐसी मौत मारूंगा जो किसी को पता भी न चले। '
उस समय प्रेमचंद जी के कारावास की अवधि कुछ ही शेष रह गई थी। डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें पहले ही जेल से मुक्त कर दिया। अन्तिम दिन विशेष आग्रह पूर्वक उन्हें भोजन कराया गया। सिंघई जी क्या समझते कि- ‘जिस भोजन को वे प्रेमपूर्वक कर रहे हैं, उसमें उनकी मृत्यु उन्हें परोसी गई है।' उन्हें नागपुर से दमोह जाने के लिए टिकटादि की व्यवस्था कर ट्रेन में बैठा दिया गया। ज्यों-ज्यों रास्ता बीतता गया, उनके शरीर में कमजोरी आती गई।
इधर दमोह में पता चला कि - 'सिंघई जी को मुक्त कर दिया गया है, और वह ट्रेन से दमोह आ रहे हैं', जनता स्वागत के लिए स्टेशन की ओर दौड़ पड़ी। भव्य स्वागत की तैयारियां होने लगीं। भाषण के लिए मंच बनाया जाने लगा। तय समय पर ट्रेन स्टेशन पर रुकी। पर यह क्या ? प्रेमचंद जी को पहचानना भी भारी हो रहा था। प्रेमचंद, प्रेमचंद नहीं लग रहे थे । जनता का सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया, स्वागत - सम्मान के सारे आयोजन रद्द कर दिये गये।
जैसे-तैसे उन्हें घर पहुंचाया गया। क्षण-क्षण उनका शरीर कृश होता गया। नगर के सभी चिकित्सकों ने मुआयना किया और एक मत से निर्णय दिया कि - ' इन्हें दिया गया विष शरीर में इतना फैल चुका है कि इसे दवाइयों द्वारा हटा पाना असम्भव है।' 9 मई 1941 ( कुछ पुस्तकों में उनके निधन की तिथि 6 अप्रैल 1941 दी गई है) के सायं 7 बजे का क्रूर काल भी आ पहुंचा। संध्या की रक्तिम आभा फैलने लगी, सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था, मानो सोच रहा हो, 'भारत माँ के इस वीर सपूत का अवसान मैं नहीं देख पाऊंगा, मैं भले ही अस्त हो जाऊँ।' भारत माँ का यह पूत सदा-सदा के लिए चला गया।
दावाग्नि की तरह पूरे शहर में यह समाचार फैल गया । दमोह और आस-पास की जनता एकत्रित हो गई। सभी ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें अन्तिम विदाई दी। धू-धू कर चिता जलने लगी। सिंघई जी मरकर भी अमर हो गये, वे अपने यशः शरीर से आज भी जीवित हैं। जैन समाज ही नहीं, पूरा देश उनकी शहादत से गौरवान्वित है। मध्यप्रदेश के स्वतंत्रता संग्राम सैनिक, खण्ड 2, पृष्ठ 77 पर लिखा है- 'भारत छोड़ो' आन्दोलन
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