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स्वतंत्रता संग्राम में जैन रोज होने वाली पेशियों के कारण अनुवाद का कार्य अपने किसी पुत्र-पुत्री या रिश्तेदार को कहीं नहीं लगाया। स्थगित हो गया। बाद में मुझे सजा भी हो गयी और यही कारण था कि आप अनेक बार उस संस्था के केन्द्रीय जेल में भेज दिया गया। फलतः इस जेल द्वार कुलपति होते-होते रह गये। पर वरांगचरित और गुच्छक भी मुझसे बिछुड़ गये। डॉ0 सम्पूर्णानन्द के अत्यन्त प्रिय व्यक्तियों यहां पर भी काफी संघर्ष के बाद 42 की जनवरी में रहे गोरावाला जी ने 1952 में उ0प्र0 कांग्रेस के अन्त में मुझे वरांगचरित और कापियां मिलीं। फिर महासचिव पद से त्यागपत्र दे दिया. उसके बाद वे कार्य प्रारम्भ किया और चार-पांच सर्ग लिखने के बाद कभी सक्रिय राजनीति में नहीं रहे। 1947 में देश के जेल मुक्त हो गया। बाहर आने पर इसकी जेल से आजाद हो जाने के बाद ही 1950 में उन्होंने सरला भी बुरी हालत हुई। क्योंकि यह महान् राजनैतिक तनाव देवी से विवाह किया। वह भी मित्रों के भारी जोर देने का समय था। प्रयाग की अखिल भा0का0 कमेटी का पर। अधिवेशन, उसके बाद आगामी आन्दोलन की तैयारी
स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थिति से गोरावाला आदि ऐसे कार्य थे कि मैं वरांगचरित को छू भी न
जी काफी चिन्तित रहा करते थे, क्योंकि इस विद्यालय सका। वरांगचरित की शुभ घड़ी तब आयी जब 42
___ की स्थापना उनके पूज्य गुरु गणेशप्रसाद जी वर्णी ने में पुन: नजरबन्द हुआ और सन् 43 के अन्त में जब
की थी। जैन समाज और साहित्य की जो सेवा गोरावाला नजरबन्दों को कुटुम्बियों से मिलने तथा पत्र-व्यवहार
जी ने की वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर लिखी की सुविधा मिली। अबकी बार ज्यों ही पुस्तक और
जाएगी। वे भा०दि0 जैन संघ, मथुरा, अ0भा0 दि0 जैन कागज हाथ लगे त्यों ही इसमें लग गया और लगभग
विद्वत्परिषद्, गणेशवर्णी जैन ग्रन्थमाला, सन्मति जैन | मास में अनुवाद को समाप्त कर डाला।'
निकेतन, नरिया, वाराणसी आदि संस्थानों से सदैव जुड़े 1942 के आन्दोलन में आपकी जन्मपत्री व
रहे। 'जैन-सन्देश' का सम्पादन और प्रकाशन भी उन्होंने प्रमाण-पत्र आदि जब्त कर लिये गये थे जो 1945
अनेक वर्षो तक किया था। में जेल से छूटने पर मिले। आपने एम0वी0 कालेज,
अपने मौलिक विचारों के कारण सदैव फिरोजाबाद में अध्यापन कार्य किया, किन्तु महात्मा
चर्चा में रहे गोरावाला जी के पास जब हम गांधी के आह्वान पर वहां की सवैतनिक नौकरी छोड़कर काशी विद्यापीठ में अवैतनिक कार्य करने आ गये।
25-5-1997 को गये और प्रस्तुत पुस्तक लिखने
की चर्चा की तो उन्होंने असीम प्रसन्नता व्यक्त की वहीं 1916 में प्रोफेसर इन्चार्ज, लाइब्रेरी बने। गोरावाला जी अपनी स्पष्टवादिता और न्यायप्रियता के लिए
थी। काल का चक्र किसी को नहीं छोड़ता। विख्यात थे। 1961 में काशी विद्यापीठ के मान्य 10 जनवरी 1999 को गोरावाला जी शांतभाव से विश्वविद्यालय हो जाने पर विद्यापीठ में भाई-भतीजावाद
चिरनिद्रा में लीन हो गये।
आ)- (1) वि0 अ{), पृ0-168 (2) प0 जै0 इ0, काफी बढ़ गया। गोरावाला जी ने इसका खुलकर विरोध
पृ0 - 265, (3) जै0 स0 रा) अ) (4) वरांग-चरित (5) किया। वे कहा करते थे- 'एक कम योग्यता वाले जैन-सन्देश, 17 मार्च 199) (6) र) नी0, पृ0-77 व्यक्ति को कहीं भी कोई पद दिया जाना एक योग्य व्यक्ति के हक को मारना है।' यही कारण है कि सिंघई (दादा) खूबचंद जी खादी वाले विद्यापीठ में जहां उनके साथ के तमाम लोगों के अंग्रेजों के लिए बेहद भारी पड़ने वाले दादा पुत्र पुत्रियां आदि विभिन्न पदों पर आसीन हैं, आपने खूबचंद जी, जबलपुर (म0प्र0) के माने हुए खादी
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