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प्रथम खण्ड
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गिरफ्तार किया गया था। मेरे साथ ही श्री लहरसिंह इस अनशन का पहला दिन जैसे-तैसे बीत गया। भाटी (जैन) और श्री दीनदयाल भारतीय (हिन्दू) भी रात्रि को जमादार मेजर हमारे पास आकर बड़ी नम्रता पकड़े गये थे। तीनों ही को पुलिस ने बिना वारंट पकड़ से हमें समझाने लगा कि- 'आप रोटी न खायें पर लिया था। पूरा एक दिन पुलिस की कस्टेड़ी में बंद, दूध तो पी लें।' हमने कहा 'मेजर साहब, हम भगवान् रहे, दूसरे दिन रतलाम से 18 मील की दूरी पर महावीर के उपासक हैं, सत्याग्रही हैं, हम ऐसा नहीं सुनसान जंगल में बने मिलिट्री के विश्रामगृह में हमें कर सकते।' अनशन का दूसरा दिन भी समाप्त होने राजपत-रणजीत रेजिमेण्ट के एक दस्ते की देखरेख को आया, तभी रतलाम नरेश महाराजा सज्जन सिंह में बंद रखा गया था। हमें वहां किसी भी तरह की अपनी कार से घूमते हुऐ बंगले के बाहर सड़क पर मानवीय सुविधाएं, सिवाय भोजन और दूध-चाय के आकर ठहरे। जमादार ने महाराज को शंकर के दुर्व्यवहार कुछ भी नहीं दी गई थीं। न अखबार, न पुस्तकें। और भोजन में की जाने वाली सारी हरकतों एवं हमारे विश्रामगृह से लगे एक छोटे से गाँव जमुनियाँ के एक उपवास आदि की जानकारी दी तो महाराज ने तत्काल गड़रिये के यहाँ से बकरी का आधा सेर दूध तीनों आदेश दिया कि- 'तुम पूरा ध्यान रखो, इन लोगों को के लिए दोनों समय मिलाकर दिया जाता था। नहाने- खाने-पीने आदि की किसी प्रकार की तकलीफ नहीं धोने के नाम पर वहीं से दो फलांग की दूरी पर स्थित होना चाहिये। उनको अपना भोजन स्वयं बनाने की एक कुंए पर दो चार दिन में, जब भी फौजी जमादार सुविधा दे दो।' की इच्छा होती, वह हमें ले जाता।
मेजर भण्डार से राशन निकाल लाया और हमें पलिस ने एक ब्राह्मण, शंकर नामक सिपाही को भोजन बनाने के लिए आग्रह करने लगा। उस समय हमारे लिए रसोइया नियुक्त किया था, जो गप्तचरी भी शाम हो चुकी थी, मैंने मेजर को समझाते हुए कहा, करता था। वह भोजन अपनी इच्छानसार बनाता. कभी 'जमादार जो आप नहीं जानते, हम जेनी होने के नाते भी उसने हमारी इच्छा या राय के अनसार भोजन रात को नहीं खाते'। दूसरे दिन प्रातः बकरी के दूध बनाकर नहीं दिया। अनेक बार रोटी व दाल-सब्जी से हम ताना ने अपने दो दिन क उपवास (अनशन) में कंकड तथा छोटे-मोटे जीव निकलते और हमें भोजन का पारणा का। छोड़कर आधे भूखे उठ जाना पड़ता। शंकर वास्तव
हमारे साथी दीनदयाल भारतीय इस घटना से बहुत में 'कंकर' था, जो हमारे कहने-सनने पर अधिकाधि प्रभावित हुए, बोले- 'भाईयो वास्तव में यह तुम्हारी क खराब भोजन बनाकर देने लगा। हमें बाध्य होकर धर्म-साधना का चमत्कार था जो महाराज को यहाँ तक सरकार को, जमादार के मार्फत अल्टीमेटम का पत्र खींच लायी।' आज 55 वर्ष बाद भी यह घटना वास्तव भेजना पडा. 'कि हमारे भोजन की व्यवस्था सही करने में मुझे भी एक चमत्कार सी ही लगती है। जिसने के लिये या तो सिपाही शंकर को बदल दें या फिर अन्याय का मुँह काला किया।" हमारा राशन हमें दिया जावे ताकि हम अपना भोजन 9 अगस्त 1997 को रतलाम में स्वतंत्रता स्वयं बना लें।' किन्तु हमारी इस गुहार का सरकार सेनानियों के सम्मान में आयोजित समारोह को सम्बोधित पर कोई असर नहीं हुआ और समयावधि के बाद हमें करते हुए आपने कहा था कि-'देश में रूस जैसी खूनी बाध्य होकर अनशन याने भूखहड़ताल प्रारम्भ करनी क्रान्ति के हालात बन रहे हैं। वर्तमान में देश के पड़ी।
भटकाव को नौजवान पीढ़ी ही रोक सकती है।'
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