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स्वतंत्रता संग्राम में जैन कर दिया। 10-15 मिनट तबीयत पै जोर दिया तो उक्त कविता न हिन्दी है, न उर्दू, न इसे कोई ये पक्तियाँ मुंह से निकल पड़ी
शायराना अहमियत ही दी जा सकती है। सचमुच मन्दिर में कैद करते हैं ताले ठुका दिये,
तुकबन्दी है। मगर यह तुकबन्दी किस वातावरण में मस्जिद में उसी हबीब के परदे लगा दिये,
कही गई और क्यों कही गई, यह पसेमंजर
मुझे मालूम था। उसका तसब्बुर मस्तिष्क में था ही, पूछा सबब तो ऐंठ के पोथे दिखा दिये,
बस कुछ न पूछिये-एक-एक पंक्ति पर तड़प-तड़प वाइजने चीख-चीख सिपारे सुना दिये।
गया। महफिल में बेहिजाब हम आँखें लड़ायेंगे।
___बात यह थी कि सेठी जी के एक शिष्य देखों कहाँ-कहाँ पै हथेली लगायेंगे।।
मोतीचन्द जैन को फाँसी दे दी गई थी। वह महाराष्ट्रीय वाइजसे जाके पूछा कि मय है हराम क्यों, जैन था। सेठीजी को उससे बहुत स्नेह था। अपने बोला कि 'मेरे सामने लेते हो नाम क्यों'। वफादार और जाँबाज शिष्य की मौत पर उन्हें बहुत जन्नत की तलाश में है बूढ़ा इमाम क्यों, सदमा पहुँचा ! मगर कर भी क्या सकते थे ? खुल जाये राजेमक्फी पीले न जाम क्यों ? 5 वर्ष बाद जब वे जेल से मुक्त होकर आये तो मयख्वार, उस खुदा को भी एक्शा पिलायेंगे।
मोतीचन्द की पवित्र स्मृति में सेठीजी ने अपनी कन्या देखें कहाँ-कहाँ पै हथेली लगायेंगे।
का विवाह महाराष्ट्र के एक युवक से इस पवित्र
भावना से कर दिया कि मैंने जिस प्रान्त और जिस अर्थात् मेरे प्यारे को किसी ने ताले में बन्द
समाज का सपूत देश को बलि चढ़ाया है, उस प्रान्त कर दिया है तो किसी ने उसे परदों में छिपा दिया
को अपनी कन्या अर्पण कर दूँ। सम्भव है उससे कोई है। कारण पूछने पर धर्मशास्त्रों के पोथे दिखा दिये
मोती जैसा पुत्ररत्न उत्पन्न होकर देशपर न्यौछावर हो कि इनके वारण्ट पर इन्हें बन्दी बनाया है, किन्तु इन
सके। मूों ने यह नहीं समझा कि उसका हुस्न हजार पर्दो में नहीं छिप सकता। न जाने दें मुझे मन्दिरों और
यह सम्बन्ध उक्त पवित्र भावना के साथ-साथ मस्जिदों में। मैं तो खले आकाश के नीचे खडा अन्तर्जातीय और अन्तन्तिीय भी था। जैनों में यह होकर उसको निहारूँगा, देखें कहाँ-कहाँ पर ये लोग नया उदारहण था और हर नये कार्य से रूढ़िवादियों बन्दिशें लगायेंगे ?
को चिढ़ होती है। अतः सेठीजी जाति से बहिष्कृत देव-दर्शन और शास्त्र-श्रवण का अधिकार
- भी किये गये और मन्दिर प्रवेश पर भी रोक लगा मानवमात्र को क्यों नहीं ? क्यों चन्द आदमी दस दी गई। (इस सन्दर्भ में जैन पत्र-पत्रिकाओं में उस अमृत-सुरा के ठेकेदार बने हुए हैं। अध्यात्म-सरा समय काफी बावेला मचा था। 'दिगम्बर जैन' 1919 पीकर तु-मैं का भेद भल जाने का सभी को अधिकार ई0, वर्ष 13 अंक 4, लिखता है-'अभी खण्डेलवाल है। यह सुधा पीते ही आत्मा और परमात्मा के बीच पंचायत ने पं0 अर्जुनलाल सेठी का जाति व्यवहार का व्यवधान मिट जायगा। हम तो स्वयं भी पियेंगे, बन्द कर दिया है। सेठी जी खण्डेलवाल हैं और अपने प्यारे को भी पिलायेंगे और एकाकार हो आपने अपनी एक पुत्री का विवाह हुमड जाति में जायेंगे। ओ! धर्म के ठेकेदारो, तुम कहाँ कहाँ पर किया है। ....यह कार्य धर्म विरुद्ध तो नहीं है परन्तु अपनी टाँग अढ़ाते फिरोगे ?
जाति बन्धन विरुद्ध अवश्य है।....)
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