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स्वतंत्रता संग्राम में जैन से उखाड़ फेंकने हेतु कटिबद्ध होकर ग्वालियर पहुंची थी, राशन पानी के अभाव में उसकी स्थिति बड़ी ही दयनीय हो रही थी। सेनाओं को महीनों से वेतन प्राप्त नहीं हुआ था। 2 जून 1858 को राव साहब ने अमरचंद बांठिया को कहा कि उन्हें सैनिकों का वेतन आदि भुगतान करना है, क्या वे इसमें सहयोग करेंगे अथवा नहीं ? (ग्वालियर रेजीडेंसी फाइल, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली) तत्कालीन परिस्थितियों में राजकीय कोषागार के अध्यक्ष अमरचंद बांठिया का निर्णय एक महत्त्वपूर्ण निर्णय था, उन्होंने वीरांगना लक्ष्मीबाई की क्रान्तिकारी सेनाओं के सहायतार्थ एक एसा साहसिक निर्णय लिया जिसका सीधा सा अर्थ उनके अपने जीवन की आहुति से था। अमरचंद बांठिया ने राव साहब के साथ स्वेच्छापूर्वक सहयोग किया तथा राव साहब प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ग्वालियर के राजकीय कोषागार से समूची धनराशि प्राप्त करने में सफल हो सके। सेन्ट्रल इण्डिया ऐजेंसी आफिस में ग्वालियर रेजीडेंसी की एक फाइल में उपलब्ध विवरण के अनुसार - '5 जून 1858 के दिन राव साहब राजमहल गये तथा अमरचंद बांठिया से गंगाजली' कोष की चाबियां लेकर उसका दृश्यावलोकन किया। तत्पश्चात् दूसरे दिन जब राव साहब बड़े सबेरे ही राजमहल पहुँचे तो अमरचंद उनकी अगवानी के लिए मौजूद थे। गंगाजली कोष से धनराशि लेकर क्रान्तिकारी सैनिकों को 5-5 माह का वेतन वितरित किया गया।'
महारानी बैजाबाई की सेनाओं के सन्दर्भ में भी ऐसा ही एक विवरण मिलता है। जब नरबर में बैजाबाई की फौज संकट की स्थिति में थी, तब उनके फौजी भी ग्वालियर आकर अपने-अपने घोड़े तथा 5 महीने की पगार लेकर लौट गये। इस प्रकार बांठिया जी के सहयोग से संकट ग्रस्त फौजों ने राहत की सांस ली। अमरचंद बांठिया से प्राप्त धनराशि से बाकी सैनिकों को भी उनका वेतन दे दिया गया (ग्वालियर रेजीडेंसी फाइल, 126!, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली)। 'हिस्ट्री ऑफ दी इण्डिया म्यूटिनी,' भाग-2 के अनुसार भी अमरचंद बांठिया के कारण ही क्रान्तिकारी नेता अपनी सेनाओं को पगार तथा ग्रेच्युटी के भुगतान के रूप में पुरस्कृत कर सके थे। (डा० जगदीश प्रसाद शर्मा का उक्त लेख)।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 1857 की क्रान्ति के समय यदि अमरचंद बांठिया ने क्रान्तिवीरां की इस प्रकार आर्थिक सहायता न की होती, तो उन वीरों के सामने कैसी स्थिति उत्पन्न होती, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। क्रान्तिकारी सेनाओं को काफी समय से वेतन नहीं मिला था, उनके राशन-पानी की भी व्यवस्था नहीं हो रही थी। इस कारण निश्चय ही क्रान्तिकारियों के संघर्ष में क्षमता, साहस और उत्साह की कमी आती और लक्ष्मीबाई, राव साहब व तात्या टोपे को संघर्ष जारी रखना कठिन पड़ जाता। यद्यपि बांठिया जी के साहसिक निर्णय के पीछे उनकी अदम्य देशभक्ति की भावना छिपी हुई थी, परन्तु अंग्रेजी शब्दकोष में तो इसका अर्थ था "देशद्रोह" या "राजद्रोह" और उसका प्रतिफल था "सजा-ए-मौत''।
अमरचंद बांठिया से प्राप्त इस सहायता से क्रान्तिकारियों के हौसले बुलंद हो गये और उन्होंने अंग्रेजी सेनाओं के दाँत खट्टे कर दिये और ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। बौखलाये हुए ह्यूरोज ने चारों ओर से ग्वालियर पर आक्रमण की योजना बनाई।
योजनानुसार ह्यूरोज ने 16 जून को मोरार छावनी पर पूरी शक्ति से आक्रमण किया। 17 जून को ब्रिगेडियर स्मिथ से राव साहब व तात्या टोपे का कड़ा मुकाबला हुआ। लक्ष्मीबाई इस समय आगरा की तरफ से आये सैनिकों से मोर्चा ले रही थीं। दूसरे दिन स्मिथ ने पूरी तैयारी से फिर आक्रमण किया। रानी लक्ष्मीबाई
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