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प्रथम खण्ड
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अंग्रेजों के 'दमन', 'फूट डालो एवं राज करो' की नीति के कारण जन-मानस का नैतिक बल गिरना प्रारम्भ हो गया था। जनमानस की मानसिकता देशहित में बनी रहे, इस भावना से देशभक्तों ने सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों को देशभक्ति का प्रचार माध्यम बनाया। ये स्वतः ही अंग्रेजों का माध्यम बन गए।
1886 के बाद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में हर क्षण राष्ट्रीय कांग्रेस का योगदान बढ़ता गया। 1886 में कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। अधिवेशन की अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी ने की। देश के करीब 450 प्रतिनिधियों ने इसमें भाग लिया। इस अधिवेशन में यह बात जोर देकर कही गई कि 'भारत का दारिद्र्य अंग्रेजों द्वारा भारत का शोषण एवं भारत के धन को इंग्लैण्ड ले जाने का परिणाम है।'
कांग्रेस के प्रारम्भिक 20 वर्ष 1885-1905 'नरम दौर' के वर्ष माने जाते हैं। इस दौरान इस मंच से प्रशासन में भारतीयों को अधिकाधिक अधिकार देने, विधानसभाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ाने, भारतीयों की उच्च सरकारी पदों पर भर्ती, सिविल सर्विस परीक्षायें भारत में ही आयोजित कराने, सेना पर होने वाले भारी खर्च का विरोध, भारतीय धन को विदेश ले जाने का विरोध, भाषण एवं बोलने की आजादी, लोक कल्याण की योजनाओं का विस्तार एवं शिक्षा-प्रसार आदि की चर्चा एवं मांग की गई।
प्रारम्भ में कांग्रेस में अंग्रेज अफसर भी भाग लेते थे। जार्ज यूले (1888) सर विलियम वेडरवर्न (188) ). एल्फ्रेड (1894), सर हेनरी काटन (1904) तो कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। किन्तु अंग्रेजों को इस संस्था के कार्यक्रमों में अंग्रेज-विरोध नजर आने लगा, फलत: उन्होंने किसी भी अधिकारी को इस संस्था से जुड़ने (प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष) पर रोक लगा दी। इसे राजद्रोही संगठन करार दिया गया। इसे अल्पसंख्यकों का एक संगठन बताया गया। यह भी कहा गया कि 'यह भारत की जनता का न तो प्रतिनिधित्व करता है और न उसके हित की बात करता है, फलत: आम आदमी को इससे दूर रहना चाहिए।' राष्ट्रीय कांग्रेस की समुद्रपारीय इकाई ब्रिटेन में भी समर्थन पाने में समर्थ हई। ब्रिटिश पार्लियामेंट में भी भारत में सुधार लागू करने के प्रयास सदस्यों द्वारा किये गये किन्तु बहुमत के बल से वह असफल रहे।
उन्नीसवीं सदी के अन्त में भारत की जनता को भारी कष्ट झेलना पड़े। देश का बड़ा भाग अकाल के गाल में आ गया, लाखों लोग इससे प्रभावित हुये, कई लाख लोग मर गये, गरीबी सबसे प्रमुख सवाल बन गया, लोगों को लगा कि इस सबके लिये ब्रिटिश शासन एवं उसकी नीतियां जिम्मेदार हैं, इससे सार्वजनिक मंचा पर शासन की तीखी आलोचना प्रारम्भ हुई, राष्ट्रीय आन्दोलन में एक नई विचारधारा का जन्म हुआ। कांग्रेस की नीतियों की आलोचना 'राजनीतिक भिक्षावृत्ति' कहकर की गई। नवोदित नेताओं, जिनमें बालगंगाध र तिलक, लाला लाजपतराय एवं विपिन चन्द्र पाल प्रमुख थे, ने कहा -'सरकार से भलाई की आशा करने के बजाय जनता को अपने बल पर भरोसा करना होगा।' उन्होंने कहा कि- 'प्रशासन से सुधार की मांग करना पर्याप्त नहीं है, स्वराज्य अपरिहार्य है।' इसी तारतम्य में बालगंगाधर तिलक ने अपना प्रसिद्ध नारा 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा'- दिया। इसी समय उनका समाचार पत्र 'केसरी' राष्ट्रीय पत्र के रूप में स्थापित हुआ। जन जागरण को निरन्तर जीवित रखने के लिए धार्मिक आयोजनों का उपयोग किया गया। महाराष्ट्र में घर-घर में मनाया जाने वाला 'गणेश महोत्सव' इसका आधार बना। स्वेदशी उद्योगों को प्रोत्साहन देने के निमित्त स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की बात प्रचारित की गई। विदेशी वस्तुओं का
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