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स्वतंत्रता संग्राम में जैन
साथ-साथ परम जिनभक्त और राजभक्त थे। भण्डारी राज्यभण्डार के प्रबन्धक होने से भण्डारी कहलाये । इस वंश के लोग राव जोधा (1427-1489 ई0 ) के समय मारवाड़ में आकर बसे थे। जोधपुर नरेश अजीतसिंह (1680-1725 ई0) के समय रघुनाथ भण्डारी राज्य के दीवान थे। वह उदार और दानो थे । उस समय लोक- कहावत चल पड़ी थी कि 'अजीत तो दिल्ली का बादशाह हो गया और रघुनाथ जोधपुर का राजा हो गया। जोधपुर राजघराने में भंडारी वंश के खिमसी, विजय, अनूपसिंह, पोमसिंह, सूरतराम, रतनसिंह आदि सूबेदार - सेनापति - दीवान पदों पर रहे। ये सभी जैनधर्म के परमभक्त थे।
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1727 ई0 में सवाई जयसिंह ने जयपुर नगर का निर्माण कराया। इससे पूर्व आमेर उनकी राजधानी थी। सवाई जयसिंह के वंश कछवाहा राजपूत के संस्थापक साढ़ेदेव थे। उनके राजमंत्री निर्भयराम या अभयराम छाबड़ा गोत्रीय खण्डेलवाल जैन थे। इनके समय में जैन धर्म और जैनी खूब फले-फूले । राज्य के मंत्री, दीवान तथा उच्चपदस्थ कर्मचारी जैन होते रहे। इस राज्य के लगभग पचास जैन मंत्रियों के स्पष्ट उल्लेख वंशावलियों में मिलते हैं। शताधिक जैन साहित्यकारों ने जयपुर राज्य के प्रश्रय में प्रभूत साहित्य रचा। राज्य के आमेर, जयपुर, टोडा, सांगानेर, चाकसू, जोबनेर, झुंझनू, मौजमाबाद आदि अनेक नगर जैनधर्म के प्रसिद्ध केन्द्र रहे हैं, जैन तीर्थ और जैन मन्दिर तो यहां अनेक हैं ही।
आमेर राज्य के महामंत्री मोहनदास भांवसा, राजा जयसिंह के दीवान संघी कल्याणदास, महाराज रामसिंह के दीवान बल्लूशाह छाबड़ा, महाराज बिशनसिंह (1689-1700) के दीवान विमलदास छाबड़ा तथा उनके पुत्र रामचन्द्र छाबड़ा, फतहचंद छाबड़ा, किशनचन्द्र छाबड़ा आदि दीवान जैन थे। 1717 से 1733 तक सवाई जयसिंह के दीवान राव जगराम पाण्ड्या, उनके पुत्र कृपाराम पाण्ड्या, फतहराम पाण्ड्या. भगतराम पाण्ड्या (1735-1743) भी दीवान रहे। इसी समय के एक दीवान श्री विजयराम छाबड़ा या विजयराम तोतूका भी उल्लेखनीय हैं, जिनके संदर्भ में महाराज ने एक ताम्रपत्र में लिखा था 'तुम्हें शाबासी है, तुमने कछवाहों के धर्म की रक्षा की है, यह राज्यवंश तुमसे कभी उऋण नहीं हो सकता और जो पायेगा तुम्हारे साथ बांटकर खायेगा।'
सवाई जयसिंह के ही समय में ताराचन्द विलाला, नैनसुख, श्रीचंद छाबड़ा, कनीराम वैद ( 1750-1763), केसरी सिंह कासलीवाल (1756-1760 ) आदि जयपुर के दीवान रहे। जैन साहित्यकार दौलतराम कासलीवाल 1720 के लगभग राज्यसेवा में नियुक्त हुए थे। वे दीवान भी रहे और उन्होंने हिन्दी आदिपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों की रचना की है।
दक्षिण भारत में विजयनगर राज्य में बेंकट द्वितीय के महालेखाकार राय - करणिक - देवरस ने 1630 ई० में मलेयूर पर्वत की पार्श्वनाथ वसदि में जिन मुनियों के बिम्ब स्थापित किये थे। कर्णाटक में मैसूर का ओडेयर वंश भी प्राचीन गंगवंश की ही एक शाखा थी। ये राजा स्वयं को गोम्मटेश प्रतिष्ठापक महाराज चामुण्डराय का वंशज भी बताते हैं। पहले यह राज्य जैनधर्मानुयायी था, बाद में कुछ राजाओं द्वारा शैव-वैष्णव धर्म स्वीकार कर लेने पर भी मैसूर के राजा स्वयं को गोम्मटेश का संरक्षक बताते रहे। मैसूर नरेश देवराज ओडेयर ने 1674 में जैन साधुओं के नित्य आहार दान हेतु श्रवणबेलगोल के भट्टारक जी को मदने ग्राम दान में दिया था। इसी तरह कृष्णराज ओडेयर ने भी श्रवणबेलगोल आकर गोम्मटेश के दर्शन कर भरपूर दान दिया था, जो इन राजाओं की जैन धर्म के प्रति श्रद्धा को अभिव्यक्त करता है।
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