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प्रथम खण्ड
उत्तर मध्यकाल के राजपूत राज्य
उत्तर मध्यकाल में मेवाड़ (उदयपुर), जोधपुर, बीकानेर, जयपुर, बूंदी आदि में राजपूत राजाओं का शासन था। उनके द्वारा शासित क्षेत्रों में जैनियों की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी। राजागण जैन मुनियों, यतियों
और विद्वानों का आदर करते थे। इन राज्यों में भी दीवान, भण्डारी, कोठारी आदि उच्च पदों पर जैनी नियुक्त होते थे।
मेवाड़ राज्य में राणासांगा का मित्र भारमल कावड़िया था, जिसे राजा ने अलवर से बुलाकर रणथम्भौर का दुर्गपाल नियुक्त किया था। बाद में राणासांगा के पुत्र उदयसिंह के शासनारम्भ में वह प्रधानमंत्री के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। 1567 ई0 में जब सम्राट अकबर ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया तब राजा उदयसिंह ने उदयपुर नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया था।
दानवीर भामाशाह के नाम से कौन परिचित नहीं होगा। भामाशाह भारमल के पुत्र थे। उन्होंने मेवाड़ ही नहीं देश की स्वाधीनता में महती भूमिका निभाई थी। 'मेवाड़ोद्धारक' उनकी उपाधि थी। भामाशाह उदयसिंह के समय से ही राज्य के दीवान एवं प्रधानमंत्री थे। जब हल्दी घाटी के युद्ध में राणाप्रताप पराजित हो गये और जंगल व पहाड़ों में भटककर स्वदेश परित्याग का संकल्प किया तब स्वदेशभक्त और स्वामिभक्त भामाशाह राजा का रास्ता रोककर खड़ा हो गये और देशोद्धार के लिए उन्हें उत्साहित करने लगे। राणा ने कहा 'न मेरे पास धन है, न सैनिक और न साथी। किस बलबूते पर मैं देशोद्धार का प्रयत्न करूँ', भामाशाह ने तत्काल विपुल द्रव्य उनके चरणों में समर्पित कर दिया, इतना कि जिससे 25000 सैनिकों का 12 वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। यह सब धन भामाशाह का अपना पैतृक एवं स्वयं उपार्जित किया हुआ था। इस अप्रत्याशित उदारता और सहायता से हर्ष विभोर राजा ने भामाशाह को गले लगा लिया और दूने उत्साह से मुगलों को बाहर करने में जुट गया। उसने अनेक युद्ध लड़े, जिनमें भामाशाह और उसका भाई ताराचन्द सदैव राजा के साथ रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि मुगल सैनिकों के पैर उखड़ने लगे और 1586 ई0 तक दशवर्ष के भीतर चित्तौड़ और मांडलगढ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर राणा का पुनः अधिकार हो गया। भामाशाह का जन्म 1547 ई0 और निधन 1600 ई0 के लगभग हआ था। भामाशाह स्वामिभक्त, दानवीर होने के साथ-साथ जैनधर्म पर प्रगाढ़ श्रद्धा रखने वाला था। भामाशाह के पुत्र जीवाशाह और पौत्र अक्षयराज अपने पिता की भांति मंत्री और दीवान रहे।
औरंगजेब की हिन्दू और जैन विरोधी असहिष्णु नीति तथा जोधपुर के महाराज जसवंत सिंह की विध वा एवं पुत्रों के साथ किये गये अन्यायपूर्ण बर्ताव से जब राजपूत भड़क उठे, तब मेवाड़ के वीर राजा राजसिंह ने एक कड़ा पत्र औरंगजेब को लिखा। इस समय राजसिंह के प्रधानमंत्री संघवी दयालदास नामक जैन वीर थे, जो भारी योद्धा और कुशल सैन्य-संचालक भी थे। संघवी दयालदास ने 1677 ई0 में छाणी ग्राम में एक पाषाणमयी जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी और उदयपुर में एक जिनमन्दिर बनवाया था, जिसके निर्माण में एक पैसा कम दस लाख रुपया लगा था।
जोधपुर राज्य में मेहता रामचन्द, मेहता अचलोजी, मेहता जयमल, मेहता नैणसी (नयनसिंह) आदि प्रमुख दीवान/प्रधानमंत्री रहे। जोधपुर के ही भण्डारी वंशीय जैन, कलम और तलवार के धनी होने के
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