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प्रथम खण्ड
राज्याभिषेक हुआ था। इतिहासकारों का मत है कि राष्ट्रकूट नरेशों में अमोघवर्ष जैनधर्म का महान् संरक्षक था और सम्भवतः उसने स्वयं जैनधर्म धारण किया था। आचार्य जिनसेन स्वामी सम्राट् के धर्मगुरु और राजगुरु थे। प्रसिद्ध जैनाचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि - 'स्वगुरु भगवज्जिनसेनाचार्य के चरणकमलों में प्रणाम करके अमोघवर्ष नृपति स्वयं को पवित्र और धन्य मानता था।' यथा
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'संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलम्।'
इसके शासनकाल में अनेक जैन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। कहा तो यहाँ तक जाता है कि इसके राज्य में जैनधर्म ही राष्ट्रधर्म था।
अमोघवर्ष का सेनापति वीर बंकेयरस जैन था और उसने कोन्नूर में एक भव्य जिनालय बनवाया था. जिसकी व्यवस्था के लिए राजा ने तलेपूर नाम का पूरा ग्राम व अन्य ग्रामों की भूमि प्रदान की थी। राष्ट्रकूट वंश के ही इन्द्र तृतीय (914-922 ई0 ) के सेनापति नरसिंह और श्रीविजय दोनों जैन थे। श्रीविजय तो जीवन के अन्तिम भाग में संसार का परित्याग करके जैन मुनि बन गये थे।
राष्ट्रकूट वंशीय कृष्ण तृतीय के महामात्य भरत जैन धर्मावलम्बी ब्राह्मण थे। भरत के पुत्र नन्न इसी सम्राट् के गृहमंत्री थे। 'नागकुमार चरित' नामक ग्रन्थ की रचना महाकवि पुष्पदन्त ने नन्न के मन्दिर (महल) में रहते हुए ही की। राष्ट्रकूट वंश के अन्तिम राजा कृष्ण तृतीय का पौत्र इन्द्रचतुर्थ था हेमावती तथा श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि की गन्धवारण बसदि के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि यह राजा बड़ा वीर और युद्ध - विजेता था। 982 ई0 में चैत्र शुक्ल अष्टमी, सोमवार के दिन इसने समाधिमरण किया था। इस प्रकार राष्ट्रकूट युग में जैनधर्म, विशेषत: दिगम्बर जैनधर्म सम्पूर्ण दक्षिणापथ में प्रधान धर्म था।
9 वीं शताब्दी ई0 में विजयालम चोल ने तंजौर को राजधानी बनाकर अपने वंश की स्थापना की और चोल राज्य का पुनरुत्थान किया। इस वंश के कोलुत्तुंग चोल (1074-1123 ई0 ) के प्रश्रय अनेक जैन धार्मिक और साहित्यिक कार्य हुए थे। उत्तरवर्ती चालुक्य नरेश तैलपदेव आहवमल्ल के महादण्डनायक वीर नागदेव की धर्मपत्नी महासती अत्तिमब्बे का नाम आज भी दक्षिण भारत में सम्मान के साथ लिया जाता है। महासती ने अपने सतीत्व के प्रभाव से कुछ समय के लिए उफनती गोदावरी को स्थिर कर दिया था। अत्तिमब्बे ने स्वर्ण एवं रत्नों की पन्द्रह सौ जिनप्रतिमायें बनवाकर विभिन्न मंदिरों में प्रतिष्ठापित की थीं और शान्तिपुराण (कन्नडी ) की एक हजार प्रतियां लिखाकर विभिन्न शास्त्रभंडारों में वितरित की थीं। इस वंश के जयसिंह द्वितीय आचार्य वादिराजसूरि के परम भक्त थे। जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर प्रथम को एक शिलालेख में स्याद्वाद मत का अनुयायी कहा गया है। इसके उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल ने शान्तिनाथ जिनालय का निर्माण कराया था। भुवनैकमल्ल के दण्डाधिप शान्तिनाथ को परम जिनभक्त कहा गया है। इसी प्रकार कुन्तल देश के राजा कीर्तिदेव की महारानी माललदेवी पुरुजिनपति ऋषभदेव की परम भक्त थीं ।
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कलचुरि राजाओं के समय में भी जैनधर्म को काफी प्रश्रय प्राप्त रहा। कहा जाता है कि इस वंश का आदि पुरुष कीर्तिवीर्य था, जिसने जैनमुनि के रूप में तपस्या करके कर्मों को नष्ट किया था। 'कल' शब्द का अर्थ 'कर्म' भी है और 'देह' भी, अतएव देह दमन द्वारा कर्मों को चूर करने वाले व्यक्ति के वंशज कलचुरि कहलाये। इस वंश का महाशक्तिशाली सम्राट् बिज्जल ( 1167 ई0) हुआ। कुलप्रवृत्ति के अनुसार
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