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प्रथम खण्ड
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ब्राह्मी और भाषा जैन प्राकृत है। इसमें सर्वप्रथम अरहन्तों और सिद्धों को नमस्कार किया गया है, जो प्रथम और द्वितीय परमेष्ठी हैं। इस शिलालेख में महावीर निर्वाण संवत् के साथ उल्लेख है कि खारखेल ने बारहवें वर्ष में मगध पर आक्रमण किया और नन्दराज द्वारा कलिंग से ले जायी गई कलिंग जिन प्रतिमा एवं बहुमूल्य रत्नों को लेकर अपनी राजधानी प्रवेश किया।
यथा - 'नमो अरहंतानं (1) नमो सवसिद्धानं..
नन्दराजनीतं च कलिंगजिनं संनिवेस..
.वारसमे च वसे..
गहरतनान पडिहारेहिं
अंगमागध वसुं च नेयाति' (पंक्ति 12 ) ।
तेरहवें वर्ष में खारवेल ने अनेक अर्हन्मन्दिर बनवाये और श्रमणों के लिए एक विशाल सभा मण्डप बनवाया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस लेख को अंकित कराने वाला खारवेल जैनधर्म का अनुयायी और परम जिनभक्त था। इसका पूरा परिवार, अनेक राजपुरुष तथा प्रतिष्ठित प्रजाजन भी जैन भक्त थे। गंग-कदम्ब-पल्लव- चालुक्य
वर्तमान कर्नाटक (मैसूर) पर लगभग एक हजार वर्ष पर्यन्त अविच्छिन्न शासन करने वाला वंश गंगवंश था। इस वंश का जैनधर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। इस वंश में अनेक प्रतापी जैन राजा भी हुए । यह उनकी नीति - परायणता और धार्मिकता का ही परिणाम था कि यह राजवंश इतना दीर्घजीवी रहा। अनुश्रुतियों के अनुसार भ० ऋषभदेव के इक्ष्वाकु वंश में अयोध्या के एक राजा हरिश्चन्द्र थे, जिनके पुत्र भरत की पत्नी विजय महादेवी से गंगदत्त का जन्म हुआ, उसी के नाम पर यह वंश गंगवंश, गांगेय या जाह्नवेय कहलाया। गंग का एक वंशज विष्णुगुप्त अहिच्छत्रा का राजा हुआ । उसका वंशज श्रीदत्त, श्रीदत्त का वंशज कम्प और कम्प का पुत्र पद्मनाभ हुआ। उसके राज्य पर जब उज्जयिनी के राजा ने आक्रमण किया तो पद्मनाभ ने अपने दो पुत्रों दद्दिग और माधव को कुछ राजचिह्नों सहित विदेश भेज दिया। ये बालक घूमते-घामते कर्नाटक के पेरूर नामक स्थान पर पहुँचे जहाँ एक जिनालय में मुनिराज सिंहनन्दि के दर्शन किये। सिंहनन्दि के आशीर्वाद से दद्दिग और माधव ने लगभग 188 ई0 में बाणमण्डल में उक्त राजवंश की नींव डालीं। एक शिलालेख में सिंहनन्दि को 'दक्षिणदेशवासीगंगमहीमण्डलीककुलसमुद्धरणः श्रीमूलसंघनाथो' कहा गया है। एक दूसरी अनुश्रुति के अनुसार गंगराजकुमारों ने नन्दगिरि को अपना दुर्ग बनाया था।
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माधव का पुत्र और उत्तराधिकारी किरियमाधव द्वितीय हुआ । उसका उत्तराधिकारी हरिवर्मन पृथ्वीगंग तंदगल माधव→अविनीत गंग हुआ। यह राजा बड़ा पराक्रमी और धर्मात्मा था, कहा जाता है कि किशोर वय में ही एक बार उसने जिनेन्द्र की प्रतिमा को शिर पर धारण करके भयंकर बाढ़ से बिफरती काबेरी नदी को अकेले पार किया था। सुप्रसिद्ध दिगम्बराचार्य देवनन्दि पूज्यपाद को इस राजा ने अपने पुत्र युवराज दुर्विनीत का शिक्षक नियुक्त किया था। अभिलेखों में अविनीत को विद्वज्जनों में प्रमुख कहा गया है। लिखा गया है 'इस नरेश के हृदय में महान् जिनेन्द्र के चरण अचल मेरु के समान स्थिर थे।' दुर्विनीत अपने गुरु पूज्यपाद का पदानुसरण करने में अपने आपको धन्य मानता था ।
दुर्विनीत के उपरान्त उसका प्रथम पुत्र पोलवीर तदुपरान्त द्वितीय पुत्र मुष्कर राजा हुआ, जिसके समय में जैनधर्म गंगवाडी का राजधर्म था। उसका पुत्र श्रीविक्रम भूविक्रम के पश्चात् शिवकुमार प्रथम राजा बना, जिसने 670 ई0 में अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था। इसके बाद उसका पुत्र राचमल्ल