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प्रथम खण्ड
कुण्डलपुर (कुण्डपुर, कुण्डनगर, कुण्डग्राम, वसुकुण्ड या क्षत्रियकुण्ड) में लगभग 600 ई0पू0 में हुआ था। कुण्डलपुर या कुण्डग्राम वैशाली के समीप था। उस समय वैशाली अत्यन्त जन-धन सम्पन्न नगरी थी और तत्कालीन सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न वज्जिगण-संघ (जिसमें लिच्छवि, ज्ञातृक, विदेह, मल्ल आदि अनेक स्वाधीनता प्रेमी गण सम्मिलित थे) की राजधानी थी। ज्ञातृकवंशी व्रात्य क्षत्रियों के गण का केन्द्र कुण्डग्राम था, जिसके स्वामी और गणपति राजा सर्वार्थ थे, उनकी पत्नी का नाम श्रीमती था। यह दम्पति श्रमणों का उपासक और तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की परम्परा का अनुयायी था। इनके पुत्र और उत्तराधिकारी राजा सिद्धार्थ थे। इनका ज्ञातृक वंश एवं गण उस समय इतना प्रतिष्ठित एवं शक्तिसम्पन्न था कि वज्जिगण संघ के प्रधान, वैशाली के अधिपति लिच्छवि शिरोमणि महाराज चेटक ने अपनी पत्री प्रियकारिणी त्रिशल सिद्धार्थ के साथ कर दिया था जिनसे वर्द्धमान का जन्म हुआ, वीर, अतिवीर, सन्मति एवं महावीर उनके अपरनाम हैं। लोक प्रचलन में आजकल वर्द्धमान के लिए महावीर ही अधिक प्रचलित है।
12 वर्ष की कठोर साधना के बाद भ) महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। अपने अमृतमयी उपदेशों से उन्होंने जन-जन को कल्याण का मार्ग दिखाया। उन्होंने चन्दनबाला के हाथ से आहार (भोजन) ग्रहण कर स्त्रियों को गौरवान्वित किया था। महावीर के स्वजन परिजन महाराज चेटक, सेनापति सिंहभद्र आदि
| किसी रूप में तत्कालीन गणतन्त्रों से सम्बद्ध थे। महावीर का निर्वाण 527 ई0 पू0 में हुआ।
भगवान् महावीर के अनन्य भक्तों में मगध नरेश श्रेणिक बिम्बसार का स्थान सर्वोपरि है। महावीर की तपस्या और साधना का स्थान अधिकांश समय में मगध ही रहा। श्रेणिक बिम्बसार के सुशासन और उत्तम राज्य व्यवस्था का श्रेय मंत्रीश्वर अभय कुमार को है। नन्द-मौर्य युग (लगभग 500-200 ई० पू०)
नन्दमौर्य युग (लगभग 500-200 ई0 पू0) में जैनधर्म को पूरा राज्याश्रय प्राप्त रहा। इस युग के अनेक राजा जैन थे। इस वंश में नन्दिवर्धन (लगभग 449-407 ई0 पू0) बड़ा प्रतापी राजा हुआ। महावीर निर्वाण संवत् 103 (ई0पू0 424) में उसने कलिंग देश पर विजय प्राप्त की थी और उस राष्ट्र के इष्टदेवता 'कलिंग जिन' (या अग्रजिन अर्थात् आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव) की प्रतिमा को वहां से ले आया था तथा उसे अपनी राजधानी पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) में स्थापित किया था। नन्दिवर्धन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी 'महानन्दिन' भी बड़ा प्रतापी एवं शक्तिशाली राजा था, उसने लगभग 44 वर्ष राज्य किया, कुल परम्परानुसार वह स्वयं जैनधर्म का अनुयायी था तथा उसके अनेक मंत्री और कर्मचारी भी जैन थे।
महानन्दिन के उपरान्त मगध में घटित घरेलू राज्य क्रान्ति का लाभ उठाकर एक साहसी एवं चतुर युवक महापद्म ने राज्य सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया। महापद्म एवं उसके पुत्र/परिजन भी जैनधर्म के अनुयायी थे। इस काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना यूनानी सम्राट सिकन्दर महान् का पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण था. जिसके अनेक अच्छे-बरे परिणाम हए। इन यनानियों को सीमान्त के गान्धार, तक्षशिला आदि नगरों के निकटवर्ती अन्य प्रदेशों में ही नहीं अपित सम्पर्ण पंजाब और सिन्ध में यत्र-तत्र अनेक नग्न (दिगम्बर) निर्ग्रन्थ साधु मिले थे, जिनका उन्होंने 'जिम्नोसोफिस्ट', 'जिम्नेटाइजेनोइ' आदि नामों से उल्लेख किया है। ये शब्द तत्कालीन एवं तत् प्रदेशीय दिगम्बर जैन मुनियों के लिए प्रयुक्त होते थे। कहा जाता है कि सम्राट् सिकन्दर कल्याण मुनि' को अपने साथ ले गये थे, वहीं उनका समाधिमरण हुआ था।
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