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स्वतंत्रता संग्राम में जैन एरेगंग→ श्रीपुरुष राजसिंहासन पर बैठा। लगभग 50 वर्ष शासन करने के बाद उसने अपने पुत्र शिवमार द्वितीय सैगोत को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया। यह बड़ा वीर, पराक्रमी, और जैनधर्म का महान् संरक्षक
और भक्त राजा था। शिवमार के पुत्र युवराज मारसिंह की मृत्यु शिवमार के जीवनकाल में ही हो गई। अतः शिवमार का भाई विजयादित्य और विजयादित्य की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सत्यवाक्य राजगद्दी पर बैठा। इधर शिवमार के छोटे पुत्र पृथ्वीपति प्रथम ने भी राज्य के एक भाग पर अपना अधिकार कर लिया था। अत: गंगराज्य दो शाखाओं में विभक्त हो गया । गंगवंश के राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (815-853 ई0), राचमल्ल सत्यवाक्य द्वितीय (870-890 ई0), राचमल्ल सत्यवाक्य तृतीय (लगभग 920 ई0) आदि प्रतापी राजा हुए। इसी वंश के एक राजा गंगराज मरुलदेव (953-961 ई0) को शिलालेखों में 'जिनचरणकमल चञ्चरीक' कहा गया है। मरुलदेव का सौतेला भाई मारसिंह (961-974 ई0) भी बड़ा प्रतापी राजा था। एक अभिलेख में उसे 'भुवनैकमंगल-जिनेन्द्र-नित्याभिषेक-रत्नकलश' बताया गया है।
गंगवंश के सन्ध्याकाल में सत्यवाक्य चतुर्थ का अद्वितीय मंत्री एवं महासेनापति चामुण्डराय
) अपनी वीरता, सत्यनिष्ठा एवं जिनेन्द्र भक्ति के कारण अमर हो गया है। चामुण्डराय महान् राजनीतिज्ञ, कवि, ग्रन्थकार, सिद्धान्तज्ञ एवं संस्कृत-प्राकृत भाषाओं का अशेष ज्ञाता था, इन्हीं की प्रेरणा से आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार जैसे महान् सिद्धान्त ग्रन्थ की रचना की थी। चामुण्डराय ने अनेक मूर्तियों एवं मन्दिरों के निर्माण के साथ ही श्रवणबेलगोल में चन्द्रगिरि पर्वत पर चामुण्डराय वसति में इन्द्रनीलमणि की तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। चामुण्डराय ने अपनी माता काललदेवी की इच्छा पूरी करने के लिए श्रवणबेलगोल में भगवान् बाहुबली की विश्व प्रसिद्ध लगभग 57 फीट ऊँची प्रतिमा की स्थापना की थी।
दक्षिण भारत के कदम्ब और पल्लव वंश के राजाओं के राज्यकाल में भी जैनधर्म को प्रश्रय प्राप्त रहा। पल्लवों का राज्यचिह्न वृषभ था, इसी कारण वे वृषभध्वज कहलाते थे। इससे इस अनुमान को पर्याप्त आधार मिलता है कि पल्लववंशी राजा ऋषभदेव के उपासक रहे होंगे। इस वंश में बाद के अनेक राजा शैव हो गये थे, जिन्होंने अनेक जैन मन्दिरों को शैव मन्दिरों में परिवर्तित करा दिया था।
सम्राट् पुलकेशिन् द्वितीय सत्याश्रय पृथ्वीवल्लभ (608-642 ई0) चालुक्य वंश का सबसे महान् सम्राट् था। प्राय: पूरे दक्षिण भारत पर उसका अधिकार था। यह राजा जैनधर्म का प्रबल पोषक था। अपनी दिग्विजय के उपरान्त राजधानी वातापी में प्रवेश करने पर उसने अपने गुरु पण्डित रविकीर्ति को उदार दान देकर सम्मानित किया था, जिसके उपलक्ष्य में रविकीर्ति ने ऐहोल की 'मेगुती' पहाड़ी पर स्थित जैन मन्दिर की दीवार पर उत्कीर्ण कलापूर्ण संस्कृत प्रशस्ति रची थी, इस प्रशस्ति में कालिदास, भारवि का नाम आया है। यथा
येनायोजि नवेऽश्म स्थिरमर्थ विधौ विवेकिना जिनवेश्म।
सः विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रित कालिदासभारविकीर्तिः।। राष्ट्रकूट-चोल- उत्तरवर्ती चालुक्य-कलचुरि
राष्ट्रकूटवंशीय राजाओं में सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम महान् राजा हुआ। 821 ई0 में मान्यखेट में इनका
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