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स्वतंत्रता संग्राम में जैन ई0 पू0 चौथी शताब्दी के अन्तिम पाद के प्रारम्भ में एक महान् राज्यक्रान्ति हुई, जिसमें नन्दवंश का नाश कर मौर्यवंश की स्थापना हई। इसका श्रेय चाणक्य को दिया जाता है, जिसने वीर चन्द्रगुप्त के सहयोग से युद्धनीति का आश्रय लेकर सबल और सुदृढ़ राज्य स्थापित किया था। कहा जाता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का अपना कुल 'मोरिय' आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली का भक्त था। जैन ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त को उन मुकुटबद्ध माण्डलिक सम्राटों में अन्तिम कहा गया है, जिन्होंने दीक्षा लेकर जीवन का अन्तिम भाग जैन मुनि के रूप में व्यतीत किया था। श्रवणबेलगोल में चन्द्रगुप्त वसदि में उनका अन्तिम समय व्यतीत
हुआ था।
चन्द्रगुप्त के बाद राज्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र बिन्दुसार हुआ। बिन्दुसार के बाद उसका पुत्र अशोक राज्य का उत्तराधिकारी बना। 'प्रियदर्शी', 'देवानां प्रिय' आदि उसकी उपाधियाँ थीं। पिता के शासन काल में वह उज्जयिनी का शासक रहा था, उस समय उसने समीपवर्ती विदिशा के एक जैन श्रेष्ठी की रूपगुण सम्पन्न 'असन्ध्यमित्रा' नाम्नी कन्या से विवाह कर लिया था, जिससे कुणाल नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था। ई0 पू0 262 के लगभग अपने राज्य के आठवें वर्ष में एक विशाल सेना लेकर अशोक ने कलिंग राज्य पर आक्रमण कर दिया। भीषण युद्ध हुआ। लाखों सैनिक मृत्यु के घाट उतार दिये गये। कलिंग राज्य पराजित हुआ। अशोक की विजय कीर्ति सर्वत्र फैल गई। परन्तु इस भयंकर नरसंहार को देखकर अहिंसामूलक जैनधर्म के संस्कारों में पले अशोक की आत्मा तिलमिला उठी, उसने प्रतिज्ञा की कि 'भविष्य में वह रक्तपातपूर्ण युद्धों से सर्वथा विरत रहेगा।'
सामान्यतः यह माना जाता है कि अशोक बौद्धधर्म का अनुयायी था और उसने बौद्धधर्म के प्रचार प्रसार एवं उन्नति के लिए अनेक कार्य किये। इसका आधार अशोक के वे शिलालेख हैं, जो उसके नाम से प्रसिद्ध हैं। परन्तु ऐसे भी कई विद्वान् हैं, जो इन सब शिलालेखों को केवल अशोक द्वारा लिखाया गया नहीं मानते अपितु उनमें से कुछ का श्रेय उसके पौत्र सम्प्रति को देते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि इन शिलालेखों का भाव और तद्गत विचार बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म के अधिक निकट हैं। अशोक यदि पूरे जीवन भर नहीं तो कम से कम अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में अवश्य जैन था। उसके धर्मचक्र में 24 आरे 24 तीर्थङ्करों के प्रतीक हैं। इसी तरह अशोक चक्र में बना सिंह भगवान् महावीर के चिह्न का द्योतक है।
अशोक का पुत्र कुणाल हुआ। कुणाल की महारानी कंचनमाला से सम्राट् सम्प्रति का जन्म हुआ, जो ई0पू0 230 के लगभग सिंहासनारूढ़ हुआ था। विसेन्ट स्मिथ के अनुसार सम्प्रति ने अरब, ईरान आदि यवन देशों में भी जैन संस्कृति के केन्द्र या संस्थान स्थापित किये थे। उसने अनेक देशों में जैन साधुओं को धर्म प्रचार के लिए भी भेजा था। खारवेल विक्रम युग (लगभग ई० पू० 200 से सन् 200 तक)
सम्राट् ऐल खारवेल के समय जैनधर्म फला-फूला। दूसरी शती ई0 पू0 का यह सर्वाधिक प्रतापी और शक्तिशाली राजा था। कलिंग देश (वर्तमान उड़ीसा) के साथ जैन धर्म का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन रहा है। भगवान् ऋषभदेव का समवसरण यहाँ आया था, तीर्थंकर अरहनाथ की प्रथम पारणा यहाँ हुई। भगवान् महावीर का पदार्पण भी यहां हुआ था। खारवेल का प्रसिद्ध शिलालेख खण्डगिरि-उदयगिरि पर्वत पर कृत्रिम गुहामन्दिर के मुख एवं छत पर सत्रह पंक्तियों में लगभग चौरासी वर्गफीट के विस्तार में उत्कीर्ण है। लेख की लिपि
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