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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
में अवान्तर कथा-संयोजन पर जो विशेष बल दिया है, उससे जैन संस्कृत महाकाव्यों का प्रान्तरिक शिल्प विधान काव्यशास्त्रीय दृष्टि से विशेष पुष्ट हुआ है । इस दृष्टि से यह भी उल्लेखनीय है कि सभी अलङ्कृत शैली के महाकाव्यों का अध्याय-विभाजन सर्गों में ही हुआ है तथा सर्गों की संख्या भी महाकाव्योचित परिणाम के अनुरूप ही है । जैन संस्कृत महाकाव्यों की शिल्प वैधानिक विशेषताएं इस प्रकार हैं
(अ) कथास्रोत-अधिकांश रूप से जैन संस्कृत अलङ्कृत महाकाव्यों के कथास्रोत इतिहास पुराण एवं महच्चरित्र ही हैं। इन ग्रन्थों में जिनसेन एवं गुणभद्रकृत 'आदिपुराण' एवं 'उत्तरपुराण', 'पद्मपुराण', 'हरिवंश पुराण' एवं 'तिलोयपण्णत्ति'
आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। रुद्रट प्रतिपादित द्विविध कथानक की दृष्टि से विचार करने पर सभी चरितनामान्त, महाकाव्य अनुत्पाद्य कथा वाले महाकाव्य हैं तथा पुराणों पर आधारित हैं। रामकथा से सम्बद्ध परवर्ती प्रालङ्कारिक महाकाव्य 'द्विसन्धान' एवं 'सप्तसन्धान' आदि 'पद्मपुराण' के कथानक से प्रभावित हैं। इसी प्रकार जैनानुमोदित पाण्डव कथा से सम्बन्ध रखने वाले महाकाव्यों में 'द्विसन्धान', 'सप्तसन्धान', 'प्रद्युम्नचरित', प्रादि महाकाव्य 'हरिवंशपुराण' से प्रभावित हैं । 'महाभारत' से ही सीधे स्रोत ग्रहण करने वाले महाकाव्यों में वस्तुपाल का 'नरनारायणानन्द' महाकाव्य है। उत्पाद्य कथा वाले महाकाव्य 'जयन्तविजय' का कथानक कवि कल्पित एवं किंवदन्तियों पर आधारित है। जैन संस्कृत ऐतिहासिक महाकाव्य इतिहास पुराणों पर आधारित न होकर समसामयिक राजाओं तथा मन्त्रिपों के जीवन वृत्तों पर आधारित हैं।
(आ) कथानक संयोजना-जन संस्कृत महाकाव्यों के कथानक विकास के प्रयोजन से कवियों द्वारा कतिपय प्रविधियों का प्रयोग भी किया गया है । इन प्रविधियों में (१) महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षण, (२) पुराणोक्त महापुरुषों के जीवन चरित, (३) जैन धर्म सम्बन्धी मुनि वर्णन, तत्त्व उपदेश एवं दीक्षा ग्रहण, (४) अलौकिक तत्त्वों का निरूपण, (५) अवान्तर कथानों की संयोजना आदि कतिपय प्रमुख प्रवधियाँ हैं जिनकी सहायता से कवियों ने महाकाव्य के आन्तरिक कलेवर को विशेष रूप से विकसित किया है । 'अलौकिक तत्त्व' एवं 'अवान्तर कथा' के द्वारा जैन महाकाव्यों की कथानक संयोजना विशेष रूप से प्रभावित हुई है।
(क) अलौकिक तस्व-कथानक विकास की दृष्टि से जैन संस्कृत महाकाव्यों में अलौकिक तत्त्वों के प्रति विशेष आग्रह रहा है । ब्राह्मण संस्कृति के साहित्य में भी
१. तु०-'देशकालपात्रचेष्टाकथान्तरानुषंजनम्' ।
-काव्यानुशासन, अध्याय ८, पृ० ४६०