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ga एवं सैन्य व्यवस्थां
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ऊंट आदि के लीद की गोलियां सम्पुष्ट रहती थीं । आग्नेयास्त्रों में 'विश्वासघाती' प्रक्रिया वाले 'आग्नेयास्त्र' प्राधुनिक बम सदृश थे । इन्हें कूम्भी, सीसे, जस्ते, आदि धातु खण्डों से निर्मित किया जाता था, पारिभद्रक, पलाश, मोम एवं तारपीन के तेल की ऐसी संरचना की जाती थी जिससे विस्फोट के समय धातुनों के टुकड़े इधर-उधर विखर पड़ते थे ।' दीक्षितार महोदय ने 'विश्वासघाती' आग्नेयास्त्र को बम सदृश आयुध माना है । शुक्रनीतिसार ( १३ -१४वीं शती ई०) में यवक्षार का पांच 'पल', गंधक का एक 'पल' एवं कोयले के चूर्ण का एक 'पल' मिलाकर अग्निचूर्ण अर्थात् 'बारूद' बनाने की विधि उल्लिखित है । इन सभी तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतवर्ष इतिहास के प्रारम्भिक युगों में ही 'आग्नेयास्त्र' की अवधारणा से परिचित था । रामायण एवं महाभारत में दिव्यास्त्रों के प्रयोग होने का विशेष वर्णन आया है । श्रालोच्य महाकाव्य भी दिव्यास्त्रों का उल्लेख करते हैं । यद्यपि हॉपकिन्स ने लिखा है कि बारूद एवं बन्दूक का प्रयोग महाभारत के काल में नहीं होता था परन्तु प्राधुनिक शोध के निष्कर्ष कुछ दूसरी ही बात बताते हैं । सोवियत विद्वान् डा० ए० ए० गोरबोवस्की ने अपनी पुस्तक 'बुक ऑफ हाइपॉथीसिस' (शीघ्र प्रकाश्य) में महाभारत के हवाले से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि 'ब्रह्मास्त्र' से उत्पन्न जिस प्रचण्ड तापमान का महाभारत में उल्लेख प्राया है उससे लगता है कि प्राचीन भारत के लोग 'एटमबम' से अनजान नहीं थे ।
to गोरबोवस्की के अनुसार चार हजार वर्ष पहले मरे व्यक्ति के कंकाल में जितनी रेडियोधर्मिता पाई गई है वह सामान्य से कई गुना अधिक है । उनके अनुसार 'ब्रह्मास्त्र के कारण हुये विनाश का महाभारत में दिया गया वर्णन लगभग वही है जो एटमबम कारण हुई तबाही का है। आग की शलाका पर पड़ी, दिशाएं अन्धकार में डूब गईं, सूर्य ढक गया, संसार तपकर जलने लगा । ब्रह्मास्त्र का उद्देश्य सारी मानव जाति को भस्मसात करना था। जो बच गये उनके बाल और नाखून झड़ गये । संसार में खाने लायक पदार्थ ही नहीं बचा और सारा वातावरण दूषित हो गया ।' ६ इस सन्दर्भ में श्रालोच्यकाल के दिव्यास्त्रों में अग्निवर्षण, धूमाच्छाटन से अन्धकार सम्पादन, जलवर्षण, पवनाधिक्य, निद्रा प्रसार आदि के जो उल्लेख आए हैं उन्हें वैज्ञानिक दृष्टि से प्रौचित्यपूर्ण कहा जा सकता है । सामान्यतया ये
Dikshitar, War in Ancient India, p. 102
१.
२ . वही, पृ० १०२
३. शुक्रनीतिसार, ४.२००.२०३ ( चौखम्बा संस्करण) वाराणसी, १६७८,
४. Hopkins, J.A O.S., Vol. 13, pp. 299-303
जनसत्ता, सितम्बर १, सन् १९८६, पृ० २
५.
६. वही, पृ० २