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शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञान
४१५ कुशिष्य
कुशिष्यों को मायावी, प्रमादी, कुटिल, क्रोधी एवं गुरु की आज्ञा का अतिक्रमण करने वाला कहा गया है।' कुशिष्य योग्य शिष्यों से ईर्ष्या-द्वेष रखते थे इस कारण से गुरु कक्षा में मेधावी शिष्यों की प्रशंसा करना उचित नहीं समझता था । कुशिष्य अत्यधिक विषयगामी तथा प्रमादी होने के कारण जड़ बुद्धि होते थे। कुछ कुशिष्य अध्ययन करने का आडम्बर मात्र दिखाते थे, वास्तव में वे अत्यधिक दुष्ट एवं कुटिल प्रकृति के होते थे। इसलिए गुरु को कुशिष्यों से सदैव सावधान रहने की आवश्यकता पड़ती थी। ज्ञानार्जन की दृष्टि से शिष्यों के विभिन्न स्तर
भवभूति के उत्तररामचरित आदि ग्रन्थों में प्राचीन भारतीय शिक्षार्थियों के ज्ञान ग्रहण के सामर्थ्य को प्राय: चर्चा की जाती रही है तथा इनमें विद्यार्थियों के दो स्तरों की सूचना दी गई है । एक वे विद्यार्थी जो प्रतिभा सम्पन्न होते हैं तथा गुरु-ज्ञान द्वारा मणि सदृश चमकते हैं। दूसरे प्रकार के वे विद्यार्थी जो समान गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी मिट्टी के ढेले के ममान जड़ रह जाते हैं। 3 सुभाषितरत्नभाण्डागार में भी विद्यार्थियों की इन्हीं दो श्रेणियों की ओर संकेत किया गया है।४ जैन महाकाव्य वराङ्गचरित में विद्यार्थियों को ज्ञान-ग्रहण की दृष्टि से चौदह भेदों में बाँटा गया है । यद्यपि ये भेद श्रावकों के धर्मोपदेश ग्रहण करने के सम्बन्ध
१. मुखकृतकपटा: प्रमत्तचित्ता: परुषरुषश्चरणेषु सत्स्वखिन्नाः। गुरुकुलमतिचक्रमुः कुशिष्या हितमिव संयति संयतं गजेन्द्राः ।।
-द्विस०, ५.६७ २. परि०, १२.१७४ ३. वितरति गुरुः प्राज्ञे विद्यां यथैव तथा जडे ।
न च खलु तयोर्ज्ञाने शक्ति करोत्यपहन्ति वा ।। भवति च पुनर्भूयान्भेदः फलं प्रति तद्यथा । प्रभवति शुचिबिम्बग्राहे मणिर्न मृदां चयः ।।
___-उत्तररामचरित, २.४ अतःसार विहीनस्य सहायः किं करिष्यति । मलयेऽपि स्थिती वेणुर्वेणुरेव च चन्दनः ।। यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रोक्तं किं करिष्यति । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥
-सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृ० ४०-४१
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