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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
महत्तर ७२, १२०, १२५, १२६, हासिक महाकाव्य ४२, ४६,
१२७, १२८, १२६, १३०, अन संस्कृत चरित महाकाव्य १३१, १३२, १३८, १४२,
४४, जैन संस्कृत चरितेवर ४५, १४६, २४०
४६, जैन संस्कृत महाकाव्य महत्तरक/महत्तरिका १३१
२७, ३४, ३५, ३६, ११-४४, महत्तरों का सङ्गठन १२६
४७-५०, ५६, ६४, जैन संस्कृत महयर/महयरो १२८
सन्धान महाकाव्य ४६, पञ्च
महाकाव्य ४०, ४४, पाश्चात्य महाकाव्य २३, २७, २६-६४
महाकाव्य ३६, ३८, पौराणिक महाकाव्य लक्षण ३२, ३३,
महाकाव्य ५६, १५४, बुहत्त्रयो ४१, ४३, ४६-५१, ६१, महा
महाकाव्य ४०, भारतीय महाकाव्य विकास ३७, ४०, ४१,
काव्य ३०, ३६, ३५, ३८, ६४, इनकी दो धाराएं, ३७
रीतिबद्ध महाकाव्य ४१, रीति ३६, जैन महाकाव्यों का स्वरूप
मुक्त महाकाव्य ४०, विकसन ३९-४३, जैन महाकाव्यों का
शील महाकाव्य २९, ३०, ३१, वर्गीकरण ४३-४८, मालोच्य
३६-३८, ४०, ४१, सन्धान महाकाव्य ५०-६४, महाकाव्य
नामान्तमहाकाव्य ४४, ४६, और सामाजिक चेतना २६.
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महाकाव्य युग का जैन दर्शन ३७५महाकाव्य-भेद :
प्रदं ऐतिहासिक ५८, अलंकृत . अनेकान्त व्यवस्था युग से २९, ३०, ३१, ३६-३८, ४०, सम्बन्ध ३७५,पूर्ववर्ती पार्शनिक मानन्द नामान्त ४४.४७, प्रवृतियों से अनुप्रेरित' ३७६, ऐतिहासिक ४४, ५०, ५८, ६० जटासिंह नन्दि का योगदान ६१, चरित नामान्त २८, ३७६-३७७, अनेकान्तवाद की ४०, ४१, ४४,४५, चरितेतर तकं प्रणाली ३७७-३७८, ४०, ४१, ४४-४६, जैन पास्तिक पोर नास्तिक दर्शनों मलंकृत ३०, ३६, ४१, ४३, का नवीन ध्रुवीकरण ३७६४४, ४५, ४६, जैन विकसन- ३८१, विविष वार्शनिवादी शील ३६, जैन संस्कृत अलंकृत की मालोचना ३९२-४१ महाकाव्य ४०-४५, ६८, ७०, महाजनपद २७७, ५१२, ५४३,५२४ ७३-७६, जैन संस्कृत ऐति- महातमः प्रभा (भूमि) ३८५