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स्त्रियों की स्थिति तथा विवाह संस्था
संघ में नारी प्रवेश की अनुमति प्रदान की । ' ऐतिहासिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो यह ज्ञात होता है कि बौद्ध काल में नारी समाज पर विशेषकर निम्नवर्ग की स्त्रियों पर पुरुषवर्ग की आधिपत्य भावना तथा कामवासना के कारण तरह तरह के अत्याचार एवं शोषण की प्रवृत्तियाँ हावी थीं। बौद्ध धर्म के द्वारा चलाई गई सन्यासीकरण की धार्मिक लहर के परिणाम स्वरूप भी पारिवारिक संघटन विघटित होने लगे तथा महिलाओं को भरण पोषण की समस्या से जूझने के लिए ही अनेक यातनाएं सहनी पड़ीं। यहाँ तक कि अपने चरित्र तथा शील की रक्षा कर सकने में भी वे असमर्थ होतीं जा रहीं थीं तथा पुरुषों का एक कुलीन वर्ग उनकी इस विवशता का नाजायज लाभ उठा रहा था । वास्तव में बौद्ध काल नारी समाज के शोषण का वह चरमरूप प्रस्तुत करता है जिसमें नारी एक सार्वजनिक उपभोग की वस्तु करार दे दी गई थी । नदी, मार्ग, मधुशाला, धर्मशाला, प्याऊ आदि के समान नारी भी सर्वभोग्या उद्घोषित कर दी गई थी । ४ स्त्री को व्यभिचार का पर्यायवाची बना दिया गया था लोग स्त्रियों को गिरवी रखने में भी नहीं हिचकिचाते थे । ६ इन्हीं दयनीय परिस्थितियों में असहाय एवं निर्धन स्त्रियों को रोजी रोटी, कपड़े आदि की जरूरतों के कारण किसी की भी पत्नी बन कर रहने के लिए भी मजबूर होना पड़ता था । बौद्ध साहित्य में जिन दस प्रकार की पत्नियों का उल्लेख आया है उससे तत्कालीन नारी समाज की शोचनीय दशा का अनुमान लगाना सहज है । वे दस प्रकार की पत्नियाँ निम्न कही गईं थीं
१. धनवकीता-धन से खरीदी गई पत्नी २. छन्दवासिनी - स्वेच्छा से रहने वाली पत्नी, ३. भोगवासिनी - भोग के कारण रहने वाली पत्नी,
१. चुल्लवग्ग, १०.१
२. मोहनलाल महतो वियोगी, जातक कालीन भारतीय संस्कृति, पटना, १९५८
पृ० १७०
३. वही, पृ०
४.
यथा नदी च पन्थो च पारणागारं समा पपा ।
एवं लोकित्थियो नाम नासं कुज्झन्ति पण्डिता ॥
- अनभिरति जातक, संख्या ५८
५.
धम्मद्ध जातक, संख्या २२०
६. मोहन लाल महतो, जातक कालीन भारतीय संस्कृति, पृ० १७०
७. तु० - दस भरियाओ... घनक्कीता... मुहुत्तिका । —पाराजिक, पृ० २०० तथा द्रष्टव्य कोमल चन्द्र जैन, बौद्ध और जैन आगमों में नारी जीवन, पृ० ८६-६२