________________
४६६
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज था।' धर्मशर्माभ्युदय में यह भी कहा गया है कि विवाहार्थ कन्या के कुल, शील और आयु का यद्यपि विशेष विचार किया जाता है तथापि कन्या के प्रति वर का प्रेमाकर्षण रूप गुण ही विवाह सम्बन्ध का मुख्य आधार है ।२ कन्या के किसी अनुरूप राजकुमार पर आसक्त होने की सूचना पाकर माता-पिता पूर्व नियोजित विवाह की भाँति अपनी कन्या का उस युवक से विवाह करने में कोई संकोच नहीं करते थे।
२. विवाह विधियाँ विविध प्रकार की क्षेत्रीय विवाहानुष्ठान विधियाँ
_ विभिन्न जैन महाकाव्यों में कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, आदि विविध प्रान्तों से प्रभावित विवाहवर्णनों का उल्लेख पाया है । तत्कालीन एवं तद्देशीय आचार विचार इनमें प्रतिबिम्बित हैं। परिणामत: विवाहमण्डप में होने वाले क्रिया-कलापों तथा धार्मिक अथवा सामाजिक रीतियों के प्रतिपादन की दृष्टि से विविध महाकाव्यों में एकरूपता नहीं पाई जाती । महाकाव्यों में वरिणत विभिन्न प्रान्तों का प्रतिनिधित्व करने वाली विवाह-विधियों का स्वरूप इस प्रकार है :
१. वराङ्गचरित-वराङ्गचरित के अनुसार सर्वप्रथम वर एवं वधू को मालाओं आदि से सुसज्जित कर विवाहमण्डप में स्थित स्वर्ण-सिंहासन पर बैठाया जाता था।४ सिंहासन के समीप शीतल एवं सुगन्धित तीर्थजल से परिपूर्ण स्वर्णकलश कमलों से ढके होते थे ।५ कन्या का पिता, मन्त्रिगण, राज्य के प्रधान तथा
१.. वराङ्ग०, २.७०, १६.३३. प्रद्यु०, ३.५६ २. यत्कन्यकायामुपवर्ण्यते बुधैः कुलं च शीलं च वयश्च किंचन । सर्वत्र सम्बन्धविधान कारणं प्रियस्य यत्प्रेमगुणविशिष्यते ।।
-धर्म० ६.४० ३. मनोरमां मन्मथ शापवद्धामाश्वासनाथं मधुरं जगाद ।, परिगृहाण गुणोदयभूषणां प्रियसुतां मम वत्स मनोरमाम् ।।
-वराङ्ग०, १६.७२ तथा २०.४१, चन्द्र०, ६.६१.७१ ४ श्रीमण्डपं कामकरण्डकाख्यं सत् कारितं नेत्रमनोऽभिरामम् ।
-वराङ्ग., २.६४ तथा २.६५-६८ तथा-सिंहासनस्योपरिसंनिषण्णो। -वही, २ ६६ तथा १६.१८ ५. हेमर्घटर्गन्धविमिश्रतोयीवाभिसद्वेष्टितदामलीलः ।
पद्मोत्पलाच्छादितवक्त्रशोभैर्वसुन्धरेन्द्राः स्नपयांबभूवुः ॥ - वही, २.७१