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सिंहावलोकन
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वर्ग का रहन सहन पर्याप्त ऊंचा था। जनसामान्य में प्रचलित वेशभूषा सम्बन्धी गतिविधियों के भी उपयोगी विवरण प्राप्त होते हैं । स्त्रियाँ अङ्ग-प्रत्यंग में आभूषण धारण करती थीं । लगभग ३५ प्रकार के स्त्री-आभूषणों का पता चलता है । स्वर्ण, रजत आदि धातुओं से निर्मित आभूषणों के अतिरिक्त उच्चवर्ग की स्त्रियाँ बहुमूल्य, मणि, रत्न आदि से जटित आभूषणों को पहनने की भी विशेष शौकीन थीं । खानपान सम्बन्धी भोज्य वस्तुओं में भात, सत्तु, चपाती, खाजा, मालपूया, पापड़, बड़ा, कढी, पूरी, लड्डू आदि को विशेष लोकप्रियता' प्राप्त थी। मांसभक्षण एवं मदिरापान का भी प्रचलन था परन्तु जैन धर्मावलम्बी इनसे परहेज रखते थे।
६. समाजशास्त्रीय दृष्टि से सातवीं शताब्दी जैन धर्म के नवीनीकरण की एक महत्त्वपूर्ण शताब्दी रही है। बौद्ध युग से लेकर गुप्तकाल तक ऐसा लगता है कि जैन धर्म ब्राह्मण धर्म के एक कट्टरविरोधी धर्म के रूप में अपनी पृथक सत्ता बनाना चाहता था। प्राकृत भाषा के प्रति विशेषाग्रह, वर्णाश्रमव्यवस्था का विरोध, वेदों के प्रामाण्य का खण्डन, धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रति अनास्था तथा पौरोहित्यवाद की भर्त्सना प्रादि जैन धर्म की विशेष प्रवृतियां रहीं थीं जिनके कारण जन धर्म तथा हिन्दू धर्म में पारस्परिक बैमनस्य की परिस्थितियां उभर कर पाई। परन्तु सातवीं शताब्दी के उपरान्त रविषेण, जिनसेन, सोमदेव, आदि ऐसे समन्वयवादी जैनाचार्य हुए जिन्होंने ब्राह्मण संस्कृति के विरुद्ध जाने वाले धर्ममूल्यों को पुनर्व्याख्या की प्रौर जैन धर्म को एक सहिष्णु एवं उदार धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया । इन समन्वयवादी युग चिन्तकों के अतिरिक्त जटासिंह नन्दि जैसे धर्माचार्यों का नाम उल्लेखनीय है जो कट्टर विरोध के स्वर में ब्राह्मण संस्कृति के मूल्यों का जमकर विरोध करते रहे परन्तु समाजशास्त्रीय दृष्टि से इनका विरोध प्रभावहीन सिद्ध हुमा है। ब्राह्मण धर्म और जैन धर्म के मध्य पारस्परिक सौहार्द तथा एक दूसरे से आदान-प्रदान करने की धामिक गतिविधियों के परिणाम स्वरूप पालोच्य युग में हिन्दू धर्म में जहाँ अहिंसा एवं कर्मकाण्डपरक सहज अनुष्ठान विधियों का प्रचलन बढ़ा वहीं दूसरी ओर जैन धर्म के धार्मिक क्रिया कलाप हिन्दू धर्म के बहुत नजदीक आते गए । हिन्दू धर्म में प्रचलित 'पुरोहित' की अवधारणा जैन धर्म के 'स्नपनाचार्य' के रूप में रूपान्तरित हो गई थी। मन्दिरों तथा आराध्य देवों की प्रतिमा पर चढ़ाए जाने वाली मांगलिक वस्तुएं भी दोनों धर्मों में लगभग समान सी थीं। वैदिक व्यवस्था में प्रचलित देवोपासना आदि धार्मिक क्रियाकलाप जैन कर्मकाण्डों में प्रतिमाभिषेक आदि के रूप में व्यवहृत होने लगे थे। दोनों धर्मों में कर्मों के अनुसार दण्ड भोगने तथा नरक एवं स्वर्ग सम्बन्धी परिकल्पनाएं भी पर्याप्त साम्यता लिए हुए थीं । जैनाचार्य हेमचन्द्र की धर्मप्रभावनाओं