________________
सिंहावलोकन
५४७
मूल्यों से अनुप्रेरित होकर दिन-प्रतिदिन लोकप्रियता को प्राप्त कर रही थी। चार्वाक तथा अन्य प्राचीन लोकायतिक दार्शनिक परम्पराओं से प्रभावित मायावाद, भूतवाद, सत्त्वोपप्लववाद के नाम से प्रचलित इन दर्शनों ने भौतिकवाद को आधार बनाकर इतने तीक्ष्ण तर्क जुटा लिए थे कि जिनके आक्रमणों से आध्यात्मिक मूल्यों पर टिके सभी दार्शनिक सम्प्रदायों की मान्यताओं को छिन्नभिन्न कर सकना अत्यन्त सहज हो गया था।
७. प्रारम्भ से ही भारतीय शिक्षा जगत् में वैदिक, बौद्ध तथा जैन विद्यानों के परम्परागत शिक्षा मूल्यों का अस्तित्व रहता आया है । मध्यकाल में वैदिक शिक्षा व्यवस्था ही सर्वाधिक लोकप्रिय बनी हुई थी। वैदिक शिक्षा के अन्तर्गत चतुर्दश विद्यानों के परम्परागत अध्ययन को विशेष महत्त्व दिया जाता था। समसामयिक परिस्थितियों में क्षत्रिय-विद्याओं के अन्तर्गत राजनीति, प्रशासन, मनोविज्ञान, युद्ध प्रादि से सम्बद्ध विद्यानों का ज्ञान समाविष्ट था। इनमें भी युद्ध कला, शस्त्रसंचालन, अश्वशास्त्र, गजशास्त्र जैसे सामरिक महत्त्व के अध्ययन विषय विशेष लोकप्रिय थे। मध्यकालीन शिक्षा संस्था चूंकि युगीन राजनैतिक वातावरण से बिशेष आक्रान्त हो चुकी थी उसके परिणामस्वरूप राजकुल के परिवारों में विशिष्टातिविशिष्ट विद्यानों के अध्ययन-अध्यापन की सुविधाएं पर्याप्त रूप से सुलम थीं परन्तु जनसाधारण की शिक्षा पर विशेष प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। शिक्षाशास्त्रीय दृष्टि से मध्यकालीन शैक्षिक उपलब्धियों का यदि मूल्याङ्कन किया जाए तो हम देखते हैं कि एक विशिष्ट एवं बैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली के माध्यम से समाज लाभान्वित हो रहा था। शिक्षा के व्यवसायोन्मुखी होने से जीविकोपार्जन की समस्याएं हल की जा चुकी थीं। अधिकांश शिक्षा के पाठ्यक्रम सामाजिक एवं मार्थिक आवश्यकतामों के अनुरूप ढाले गए थे जिनके परिणामस्वरूप पौरोहित्य व्यवसाय, सैन्य व्यवसाय, शिल्प व्यवसाय के क्षेत्र में शैक्षिक उपलब्धियाँ महत्त्वपूर्ण योगदान सिद्ध हो रहीं थीं।
भारतीय स्थापत्य तथा कला के क्षेत्र में मध्यकालीन भारत ने जो विश्वकीर्तिमान स्थापित किया है उसका अधिकांश श्रेय इस युग की शिल्प तथा कला शिक्षा को ही दिया जा सकता है । लोकोपयोगी शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाएं समाज को लाभान्वित कर रहीं थीं जिनमें ज्योतिष विद्या, आयुर्वेद, शकुनशास्त्र, स्वप्नशास्त्र आदि मुख्य हैं। मध्यकालीन शिक्षा जगत् में संस्कृत भाषा राष्ट्रीय स्तर पर बौद्धिक आदान-प्रदान की एक सम्पर्क भाषा के रूप में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रही थी। इसके साथ ही प्रादेशिक लोकभाषाओं का प्रचार प्रसार भी विशेष प्रगति पर था। कुल मिलाकर मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था