________________
४६२
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
४. पटवासिनी-वस्त्र प्राप्त करने से बनी पत्नी, ५. अोदपत्तकिनी-उदकपात्र से बनी पत्नी, ६. प्रोमटचुम्बटा-सिरहाने को उतरवाने से बनी पत्नी ७. दासीनौकरानी के रूप में बनी पत्नी ८. कम्मकारी-मजदूरी पर काम करने से बनी पत्नी, ६. धजाहटा–युद्ध से लूट कर लाई गई पत्नी तथा १० मुहुत्तिका-कुछ समय के लिए बनी पत्नी । नारी समाज के इतिहास में पत्नी पद का अवमूल्यन इतना पहले कभी नहीं हुआ था।
जैन पागम कालीन नारी
जैन आगमों की नारी की स्थिति स्मृतिकालीन इतिहास चेतना से बहुत कुछ प्रभावित जान पड़ती है। जैन आगमों में मनुस्मृति के अनुसार ही नारी को अपने पूरे जीवन काल में पिता, पति तथा पुत्र के अधीन रहने की मान्यता का प्रतिपादन हुअा है । जैन परम्परा के अनुसार चन.वर्ती के चौदह रत्नों में स्त्री की भी परिगणना की गई है। जो नारी को सम्पत्ति मानने की अवधारणा का पोषण करता है। जैन सूत्रों ने स्त्रियों को काममूलक घोषित करते हुए कहा है कि ये युद्ध की भी मुख्य कारण हैं। जैन आगमों की अनेक कथानों में स्त्रियों की चरित्रहीनता तथा प्रविश्वसनीयता प्रादि दुर्गणों को उभारने की विशेष प्रवृत्ति भी देखी जा सकती हैं । जैन प्रागमों में उपलब्ध होने वाली इस स्त्रीनिन्दा के सम्बन्ध में डा० जगदीश चन्द्र जैन का यह मन्तव्य भी उल्लेखनीय है-"स्त्रियों के सम्बन्ध में जो निन्दासूचक उल्लेख मिलते हैं वे सामान्यतया साधारण समाज द्वारा मान्य नहीं हैं। इससे यही जान पड़ता है कि स्त्रियों के आकर्षक सौन्दर्य से कामुकतापूर्ण साधुनों की रक्षा करने के लिए स्त्री चरित्र को लाञ्छित करने का यह प्रयत्न है ।"४ बौद्ध संघ व्यवस्था की भांति जैन धर्म संघ में भी साधनारत नारी की स्थिति पुरुष साधक की तुलना में निम्न मानी गई है। व्यवहारसूत्र का कथन है कि तीन वर्ष की पर्याय वाला निर्ग्रन्थ तीस वर्ष की पर्यायवाली
१. जगदीश चन्द्र जैन, जैन अागम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० २४५ तथा तु०-जाया पितिव्वसा नारी दत्ता नारी पतिब्वसा। विहवा पुत्तवसा नारी नस्थि नारी समवसा ।।
- व्यवहारभाष्य, ३.२३३ २. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ३.६७; उत्तराध्ययन टीका १८, तथा द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ,
पृ० १६४ ३. जगदीश चन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० २४७-४८ ४. वही, पृ० २४६