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शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञान
४३७ (ख) खड्गविद्या'-खड्ग (तलवार) चलाने की विविध कलाओं का ज्ञान कराना, खड्ग चलाते समय पावों की गति तथा उसकी धार का निरीक्षण करना, आदि खड्गविद्या के अभ्यास कार्य होते थे। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में छुरीविद्या का भी पृथक् उल्लेख पाया है।
(ग) शस्त्रविद्या- ऐसा प्रतीत होता है कि विविध प्रकार के आक्रमणात्मक एवं सुरक्षात्मक प्रायुधों के प्रयोग का अभ्यास शास्त्रप्रतिपादित नियमों के अनुसार किया जाता था । राजकुमार सगर द्वारा धनुष, फलक, (ढाल), असि, छुरी, शल्य, परशु, कुन्त, भिन्दिपाल, गदा, कम्पन, दण्ड, शक्ति, शूल, हल, मूसल, यष्टि, पट्टिस, दुःस्फोट, भुशुण्डी, गोफणि, करणय, त्रिशूल, शंकु, आदि शस्त्रास्त्रों को चलाने का अभ्यास किया गया । कुन्त, शक्ति, शर्वला आदि प्रहरणात्मक शस्त्रों अथवा अस्त्रों को बहुत वेग से घुमाकर आकाश की ओर फेंका जाता था। इस प्रकार विभिन्न प्रकार के शस्त्रों का प्रशिक्षण 'शस्त्रविद्या' द्वारा प्राप्त किया जा सकता था । ८ 'शस्त्र विद्या' सामान्यतया विभिन्न प्रकार के अस्त्रशस्त्र संचालन से सम्बद्ध थी परन्तु 'खड्गविद्या' एवं 'धनुर्विद्या' तलवार और तीर अन्दाजी से सम्बद्ध विशिष्ट विद्याएं रही थीं। वराङ्गचरित के अनुसार पांच प्रकार के प्रायुधों का अभ्यास भी विशिष्ट विद्या के रूप में किया जाता था।
(ख) कला १. सङ्गीत कला
उच्च अध्ययन विषय के रूप में तथा जनजीवन के मनोरञ्जन की दृष्टि से सङ्गीतकला का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा था । धनिक वर्ग के प्रासादों में तथा देवालयों११ में सङ्गीत साधना का सतत अम्यास होता रहता था ।१२ राज्य के
१. वराङ्ग०, ११.७४, त्रिषष्टि०, २.३.५१ . २. वही, २.३.५० ३. वही, २.३.५१ ४. वही, २.३.५३ ५. वराङ्ग०, २.७, त्रिषष्टि०, २.३.५२, हम्मीर०, १.७७ ६. त्रिषष्टि०, २.३.३५ ७. त्रिषष्टि०, २.३. ३५, ३६-३७ ८. वही, २.३.५२ ६. पंचायुधे शास्त्रपरीक्षणे वा। -वराङ्ग०, ११.७४ १०. सङ्गीतध्वनिमुखरै विराजमाना प्रसादैः । -चन्द्र०, १६.६ ११. मृदङ्गगीतध्वनितुङ्गशालम् । -वराङ्ग०, २२.५६ १२. पदे पदे नाटकानि, सङ्गीतानि पदे पदे। --त्रिषष्टि०, २.२. ५६६