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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
आयुर्वेदोक्त प्रौषधियों द्वारा इस रोग का उपचार सम्भव था। पित्त ज्वर में दूध मीठा नहीं लगता है । अजीर्ण रोग को सभी रोगों का कारण माना गया है । 3 दुर्नामक अर्थात् अर्श रोग बहुत अधिक बढ़ जाने पर 'छेदन क्रिया' अर्थात् 'आप्रेशन' द्वारा ही रोग पर नियन्त्रण कर पाना सम्भव था । ४
धार्मिक निःशुल्क चिकित्सा
चिकित्सा जीवन यापन का एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय बन गई थी तथापि धार्मिक दृष्टि से नि:शुल्क चिकित्सा करने का भी उल्लेख मिलता है । पद्मानन्द महाकाव्य के उल्लेखानुसार जैन मुनियों आदि की चिकित्सा के लिए अत्यधिक मूल्य वाली वस्तुएं व्यापारी लोग बिना मूल्य ही दे देते थे। जैन मुनि के कुष्ठरोग निवारणार्थं एक-एक लाख दीनार मूल्य वाले मरिण कम्बल तथा गोशीर्ष चन्दन का कोई मूल्य नहीं लिया गया । इसी प्रकार जीवानन्द आदि वैद्यों ने धर्म लाभ प्रयोजन से मुनि के कुष्ठरोग की निःशुल्क शल्य चिकित्सा की । ६
५. ज्योतिष एवं नक्षत्र विज्ञान
जैन संस्कृत महाकाव्यों में ज्योतिष एवं नक्षत्र विज्ञान के प्रति अपार श्रद्धा प्रकट की गई है । महत्त्वपूर्ण अवसरों पर ज्योतिष विद्या के आधार पर ग्रहों-नक्षत्रों तथा मुहूर्तों की शुभाशुभ स्थिति का विचार किया जाता था। इसी दृष्टि से राजा के मन्त्रिमण्डल में पुरोहित का एक महत्त्वपूर्ण स्थान था तथा राज्य स्तर पर ज्योतिष विद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में भी प्रतिष्ठित थी। अनेक जैन महाकाव्यों में ग्रहों, नक्षत्रों आदि का विचार कर किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के प्रारम्भ
१. प्रायुर्वेदोदितोषध्योल्लाषीकृत्योदुवाहताम् । परि०, ७.३६ पित्तज्वरवतः क्षीरं मधुरं नावभासते । - यशो०, १.५४ ३. रोगा वैद्यविशारदैर्निगदिताः सर्वेऽप्यजीर्णोद्भवाः ।
२.
- शान्ति ०,
४. प्रसुहृत्वविधावुपस्थितं भुवि दुर्नामकमात्रविक्रियम् । शमये मतिमान्महोदयं सहसाच्छेदनमन्तरेण कः ।। —वर्ध ०, ७.४५ ५. वृद्धो वणिग् वस्तुयुगस्य मूल्यमेकैकदीनारकलक्षमूचे ।
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१४.१६
—पद्मा०, ६.५६
कल्याणवन्तो ! मरिणकम्बलं मे, गोशीर्षकं चन्दनमाददध्वम् । विनाशि गृह्णामि धनं न मूल्ये, काङ्क्षामि किन्त्वक्षयमेव धर्मम् ॥ वही, ६.६५
प्रदाय तेम्योऽय स धर्मलाभम् । - वही, ६.६५