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जन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
अतिरिक्त ग्यारहवें भाव में सभी ग्रह शुभ ही माने गए हैं। इसी दृष्टि से विचार करते हुए पार्श्वनाथचरित में वादिराज के नव ग्रहों की शुभ स्थिति स्वीकार की गई है ।' वराङ्गचरित में जातक की जन्मकुण्डली की ग्रह स्थिति का शुभ लग्नों, ग्रह योगों, शुभ तिथियों, त्रिकोणगत तथा केन्द्रगत शुभ ग्रहों के अनुसार विचार करने की मान्यता का भी प्रतिपादन हुआ है । शान्तिनाथ चरित मे एक स्थान पर एक साथ नवग्रहों में से सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल, गुरु, शनि, राहु तथा केतु इन माठ ग्रहों का स्वरूप तथा फल आदि भी कहा गया है। वर्धमानचरित में उल्लेख प्राया है कि राजकुमार के राज्याभिषेक के लिए शुभ दिन, शुभ लग्नों श्रादि दृष्टियों से विचार करने पर 'गुरुवार' का दिन शुभ दिन था। राहु द्वारा चन्द्रमा को ग्रसित करने की मान्यता जनसाधारण में बहुत लोकप्रिय रही थी । ५ चन्द्र ग्रहरण को देखना स्त्रियों के लिए पतिकष्ट का सूचक माना जाना था।
ग्रह-नक्षत्रों के प्रति अविश्वास भावना
जैन धर्म के धार्मिक क्रिया कलापों के अवसर पर शुभ लग्न, ग्रह, तिथि श्रादि के श्रौचित्य को जटासिंह नन्दि ने यद्यपि स्वीकार किया है किन्तु ब्राह्मण संस्कृति में ग्रहनक्षत्रों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होने के कारण सैद्धान्तिक रूप में ग्रह प्रादि के शुभाशुभ परिणामों के प्रति उन्होंने अविश्वास भी प्रकट किया है। 5
सिंह का प्रक्षेप है कि जब रामादि महापुरुषों के विवाह शुभ नक्षत्रों आदि में सम्पन्न हुए थे तो उनके पति-पत्नी विश्लेष की स्थिति क्यों उत्पन्न हुई ? ६ ऐसे ही
१. पार्श्व ० ४.११६
२
शुभे विलग्ने ग्रहयोगसत्तिथो त्रिकोणर्गः केन्द्रगतैः शुभग्रहैः ।
३. शान्ति०, २.४६-५१
४.
वर्ध ०, १.६०
रविचन्द्रमसोः ग्रहपीडाम् । -
५.
६. धर्म ०, ४.४१
७.
- वराङ्ग ० ( वर्ध), १.३४
- वराङ्ग०, २४.३६ तथा धर्म०, ५.६
अथ प्रशस्ते तिथि लग्न-योगे मुहूर्तनक्षत्रगुणोपपत्तौ । क्षपाकरे च प्रतिपूर्यमाणे ग्रहेषु सर्वेषु समस्थितेषु ॥
- वराङ्ग०, २३.१
८. वही, २४.६०
६. ग्रहयोगबलाच्छुभं भवेच्चेत्स च रामः प्रियया कथं विहीनः ।
— वही, २४.३२