________________
४३०
जन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
के अनुसार अन्य विद्याओं के अध्ययन के अवसर पर भी व्याकरण का अभ्यास नहीं छोड़ा जाता था।' प्रारम्भ में व्याकरण सिखाते समय 'सुप', 'तिङ' पदों के प्रयोग, षत्व-णत्व करण-विधि, सन्धि एवं विसर्ग-विधान आदि के अभ्यास कराए जाते थे। वैयाकरणों के 'लाक्षणिक'3, 'पदिक'४ अथवा 'पदकार'५ आदि पर्यायवाची नाम प्रचलित थे । व्याकरण का 'शब्दशास्त्र' भी अपर नाम था। आदिपुराण में व्याकरण विद्या को 'पदज्ञान' से अभिहित किया गया है। इसी पुराण में 'स्वायम्भुव' नामक एक 'पदशास्त्र' (व्याकरण) ग्रन्थ का उल्लेख भी हुआ है। आदिपुराण के उल्लेखानुसार आदितीर्थङ्कर वृषभदेव ने पदज्ञान (व्याकरण) रूपी दीपिकानों से अपनी पुत्रियों को विद्यानों का अभ्यास कराया था। पाणिनि व्याकरण तथा वररुचि के वात्तिकों का हेमचन्द्र के समय में विशेष रूप से अध्ययन किया जाता था। व्याकरण शास्त्र का अध्ययन करते समय सूत्रों और वृत्तियों का अध्ययन करना भी मुख्य था ।'• नाम, पाख्यात, निपात तथा अव्यय चार भागों में विभाजित कर व्याकरणशास्त्र का अध्ययन कराया जाता था।''
४. भाषा तथा लिपि-शिक्षा जगत् में भाषा का विशेष महत्त्व होता है। ब्राह्मण संस्कृति का अधिकांश साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा जाता रहा । बौद्ध एवं जैन धाराओं का प्रारम्भिक साहित्य यद्यपि पाली एवं प्राकृत भाषा में ही लिखा जाता था किन्तु ५वीं-६ठी शताब्दी के उपरान्त जैन एवं बौद्ध लेखकों ने भी संस्कृत भाषा में भी लिखना प्रारम्भ कर दिया था। जैन संस्कृत महाकाव्यों के समय तक संस्कृत पुनः अपने पद पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी। संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत एवं अन्य देशीय भाषानों का भी विकास होता रहा । १२ लगभग तृतीय
१. तच्चापेऽपि न व्याकरणं मुमोच । -द्विस०, ३.३६ २. वहो, ३.३६ ३. द्वया०, १५.११८ ४. द्वया०, ५.१२२ ५. वही, १५.६७ ६. त्रिषष्टि०, २.३.२२ ७. आदि०, १६.११६ ८. वही, १६.११२ ६. नेमिचन्द्रशास्त्री, आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० २८४-८५ 90. Narang, Dvayāśrayakāvya, p. 207 ११. नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रादिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० २७१ १२. अल्तेकर, प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, पृ० १३७