________________
शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञान
४२१
मीमांसा, वार्ता, दण्डनीति, आन्वीक्षिकी, ज्योतिष, चित्रकला, वास्तुकला, सङ्गीतकला एवं नृत्यकला आदि विषय विशेष लोकप्रिय रहे थे । मध्यकाल में 'विद्या' तथा 'उपविद्या' के मूल्यों से पाठ्यक्रम में मुख्य तथा सहायक विषयों का औचित्य स्वीकार किया जाता था । हेमचन्द्र ने चौदह मुख्य विद्याओं की जो तालिका प्रस्तुत की है उसमें चार वेद, छह वेदाङ्ग, पुराण, धर्मशास्त्र, न्याय तथा मीमांसा, परिगणित हैं ।
बौद्ध विद्या परम्परा
बौद्ध शिक्षा पद्धति में प्रचलित अध्ययन विषय युगीन मूल्यों एवं सामाजिक प्रासङ्गिकता से विशेष अनुप्रेरित थे । बौद्ध जातकों से ज्ञात होता है कि बौद्ध शिक्षार्थी वेद, वदिक साहित्य, ब्राह्मण, संहिता, उपनिषद्, शिक्षा, अर्थशास्त्र, शिल्प वार्ता, व्याकरण, दर्शन, धर्म, इतिहास आदि की शिक्षा प्राप्त करते थे । बौद्ध शिक्षा शास्त्रियों ने विज्ञान तथा टैक्नोलोजी की शिक्षा को विशेष महत्त्व प्रदान किया । इसके अतिरिक्त बौद्ध जातकों में परम्परागत शिल्प विद्याओं के रूप में 'अष्टादशशिल्प' की जो परिगणना की गई है उनमें व्यावसायिक शिक्षा से सम्बद्ध अध्ययन विषय समाविष्ट हैं । ये 'अष्टादशशिल्प' इस प्रकार थे - १. सङ्गीत २. गायन, ३. नृत्य, ४. चित्रकला, ५. नक्षत्रकर्म, ६. अर्थशास्त्र, ७. वास्तुशास्त्र, ८. तक्षणकर्म ( बढ़ई गिरी ), ६. वार्ता, (खेती), १०. पशुपालन ११. व्यापार, १२. आयुर्वेद, १३. गजाश्वपरिचालन, १४. कानून, १५. युद्धकला, १६. इन्द्रजाल, १७. सर्पक्रीड़ा तथा १८. मणिरागाकरज्ञान । ४
वस्तुतः बौद्ध कालीन विश्वविद्यालयीय शिक्षा से सम्बद्ध पाठ्यक्रमों की दृष्टिपात किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की प्रेरणा से पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाता था । नालन्दा विश्वविद्यालय में महायान शाखा का विशेष अध्ययन सम्भव
१. सिद्धेश्वरी नारायण राय, पौराणिक धर्म एवं समाज, इलाहावाद, १६६८, पृ० २२५- ६१
२. सोऽङ्गानि वेदांश्तुरो मीमासान्यायविस्तरम् । पुराणं धर्मशास्त्रं च तत्राध्यैष्टाविशिष्टधीः ॥ चतुर्दशापि हि विद्यास्थानानि निजनामवत् । कृत्वा कण्ठगतान्यगात्पुरं दशपुरं ययो ॥
— परि०, १३.६-७
३.
जयशंकर मिश्र, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृ० ५०५
४. जातक संख्या ८०, १८५, २५६, ४१६, ५१७